ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 5
From जैनकोष
तदनन्तर, किसी दिन राजा महाबल की जन्मगाँठ का उत्सव हो रहा था । वह उत्सव मंगलगीत, वादित्र तथा नृत्य आदि के आरम्भ से भरा हुआ था ।।१।। उस समय विद्याधरों के अधिपति राजा महाबल सिंहासन पर बैठे हुए थे । अनेक वारांगनाएँ उन पर क्षीरसमुद्र के समान श्वेतवर्ण चामर ढोर रही थीं ।।२।। उनके समीप खड़ी हुई वे तरुण स्त्रियाँ ऐसी मालूम होती थीं मानो कामदेवरूपी वृक्ष की मंजरियाँ ही हों, अथवा सौन्दर्यरूपी सागर की तरंग ही हों अथवा सुन्दरता की कलिकाएँ ही हों ।।३।। अपने-अपने विशाल वक्षःस्थलों से समीप के प्रदेश को आच्छादित करने वाले तथा मुकुटों से शोभायमान अनेक विद्याधर राजा महाबल को घेरकर बैठे हुए थे । उनके बीच में बैठे हुए महाबल ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो अनेक पर्वतों से घिरा हुआ या उनके बीच में स्थित सुमेरुपर्वत ही हो ।।४।। उनके वक्षःस्थल पर चन्द्रमा के समान उज्ज्वल कान्ति का धारक—श्वेत हार पड़ा हुआ था जो कि हिमवत् पर्वत के शिखर पर पड़ते हुए झरने के समान शोभायमान हो रहा था ।।५।। जिस प्रकार विस्तृत आकाश में जलकाय के इधर-उधर चलती हुई हंसों की पंक्ति शोभायमान होती है उसी प्रकार राजा महाबल के विस्तीर्ण वक्षःस्थल पर इन्द्रनीलमणि से सहित मोतियों की कण्ठी शोभायमान हो रही थी ।।६।। उस समय मन्त्री, सेनापति, पुरोहित, सेठ तथा अन्य अधिकारी लोग राजा महाबल को घेरकर बैठे हुए थे ।।७।। वे राजा किसी के साथ हंसकर, किसी के साथ सम्भाषण कर, किसी को स्थान देकर, किसी को दान देकर, किसी का सम्मान कर और किसी की ओर आदरसहित देखकर उन समस्त सभासदों को सन्तुष्ट कर रहे थे ।।८।। वे महाबल संगीत आदि अनेक कलाओं के जानकार विद्वान् पुरुषों की गोष्ठी का बार-बार अनुभव करते जाते थे । तथा श्रोताओं के समक्ष कलाविद् पुरुष परस्पर में जो स्पर्धा करते थे उसे भी देखते जाते थे । इसी बीच में सामन्तों-द्वारा भेजे हुए दूतों को द्वारपालों के हाथ बुलवाकर उनका बार-बार यथायोग्य सत्कार कर लेते थे । तथा अन्य देशों के राजाओं के प्रतिष्ठित पुरुषों-द्वारा लायी हुई भेंट का अवलोकन कर उनका सम्मान भी करते जाते थे । इस प्रकार परम आनन्द को विस्तृत करते हुए, आश्चर्यकारी विभव से सहित वे महाराज महाबल मन्त्रिमण्डल के साथ-साथ स्वेच्छानुसार सभामण्डप में बैठे हुए थे ।।९-१२।। उस समय तीक्ष्णबुद्धि के धारक तथा इष्ट और मनोहर वचन बोलने वाले स्वयंबुद्ध मन्त्री ने राजा को अतिशय प्रसन्न देखकर स्वामी का हित करने वाले नीचे लिखे वचन कहे ।।१३।। हे विद्याधरों के स्वामी, जरा इधर सुनिए, मैं आपके कल्याण करने वाले कुछ वचन कहूँगा । हे प्रभो, आपको जो यह विद्याधरों की लक्ष्मी प्राप्त हुई है उसे आप केवल पुण्य का ही फल समझिए ।।१४।। हे राजन् धर्म से इच्छानुसार सम्पत्ति मिलती है, उससे इच्छानुसार सुख की प्राप्ति होती है और उससे मनुष्य प्रसन्न रहते हैं इसलिए यह परम्परा केवल धर्म से ही प्राप्त होती है ।।१५।। राज्य, सम्पदा, भोग, योग्य कुल में जन्म, सुन्दरता, पाण्डित्य, दीर्घ आयु और आरोग्य, यह सब पुण्य का ही फल समझिए ।।१६।। हे विभो, जिस प्रकार कारण के बिना कभी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, दीपक के बिना कभी किसीने कहीं प्रकाश नहीं देखा, बीज के बिना अंकुर नहीं होता, मेघ के बिना वृष्टि नहीं होती और छत्र के बिना छाया नहीं होती उसी प्रकार धर्म के बिना सम्पदाएँ प्राप्त नहीं होतीं ।।१७-१८।। जिस प्रकार विष खाने से जीवन नहीं होता, ऊसर जमीन से धान्य उत्पन्न नहीं होते और अग्नि से आह्लाद उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार अधर्म से सुख की प्राप्ति नहीं होती ।।१९।। जिससे स्वर्ग आदि अभ्युदय तथा मोक्षपुरुषार्थ की निश्चित रूप से सिद्धि होती है उसे धर्म कहते हैं । हे राजन् मैं इस समय उसी धर्म का विस्तार के साथ वर्णन करता हूँ उसे सुनिए ।।२०।। धर्म वही है जिसका मूल दया हो और सम्पूर्ण प्राणियों पर अनुकम्पा करना दया है । इस दया की रक्षा के लिए ही उत्तम क्षमा आदि शेष गुण कहे गये हैं ।।२१।। इन्द्रियों का दमन करना, क्षमा धारण करना, हिंसा नहीं करना, तप, ज्ञान, शील, ध्यान और वैराग्य ये उस दयारूप धर्म के चिह्न हैं ।।२२।। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह का त्याग करना ये सब सनातन (अनादिकाल से चले आये) धर्म कहलाते हैं ।।२३।। इसलिए हे महाभाग, राज्य आदि समस्त विभूति को धर्म का फल जानकर उसके अभिलाषी पुरुषों को अपनी दृष्टि हमेशा धर्म में स्थिर रखनी चाहिए ।।२४।। हे बुद्धिमन् यदि आप इस चंचल लक्ष्मी को स्थिर करना चाहते हैं तो आपको यह अहिंसादि रूप धर्म मानना चाहिए तथा शक्ति के अनुसार उसका पालन भी करना चाहिए ।।२५।। इस प्रकार स्वामी का कल्याण चाहने वाला स्वयंबुद्ध मन्त्री जब धर्म से सहित, अर्थ से भरे हुए और यश को बढ़ाने वाले वचन कहकर चुप हो रहा तब उसके वचनों को सुनने के लिए असमर्थ महामति नाम का दूसरा मिथ्यादृष्टि मन्त्री नीचे लिखे अनुसार बोला ।।२६-२७।। महामति मन्त्री, भूतवाद का आलम्बन कर चार्वाक मत का पोषण करता हुआ जीवतत्त्व के विषय में दूषण देने लगा ।।२८।। वह बोला—हे देव, धर्मों के रहते हुए ही उसके धर्म का विचार करना संगत (ठीक) होता है परन्तु आत्मा नामक धर्मी का अस्तित्व सिद्ध नहीं है इसलिए धर्म का फल कैसे हो सकता है ? ।।२९।। जिस प्रकार महुआ, गुड़, जल आदि पदार्थों के मिला देने से उसमें मादक शक्ति उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथिवी, जल, वायु और अग्नि के संयोग से उनमें चेतना उत्पन्न होती है ।।३०।। इसलिए इस लोक में पृथिवी आदि तत्त्वों से बने हुए हमारे शरीर से पृथक् रहने वाला चेतना नाम का कोई पदार्थ नहीं है क्योंकि शरीर से पृथक् उसकी उपलब्धि नहीं देखी जाती । संसार में जो पदार्थ प्रत्यक्षरूप से पृथक् सिद्ध नहीं होते उनका अस्तित्व नहीं माना जाता, जैसे कि आकाश के फूल का ।।३१।। जब कि चेतनाशक्ति नाम का जीव पृथक् पदार्थ सिद्ध नहीं होता तब किसी के पुण्य-पाप और परलोक आदि कैसे सिद्ध हो सकते हैं शरीर का नाश हो जाने से ये जीव जल के बबूले के समान एक क्षण में विलीन हो जाते हैं ।।३२।। इसलिए जो मनुष्य प्रत्यक्ष का सुख छोड़कर परलोक सम्बन्धी सुख चाहते हैं वे दोनों लोकों के सुख से च्युत होकर व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं ।।३३।। अत एव वर्त्तमान के सुख छोड़कर परलोक के सुख की इच्छा करना ऐसा है जैसे कि मुख में आये हुए मांस को छोड़कर मोहवश किसी शृगाल का मछली के लिए छलाँग भरना है । अर्थात् जिस प्रकार शृगाल मछली की आशा से मुख में आये हुए मांस को छोड़कर पछताता है उसी प्रकार परलोक के सुखों की आशा से वर्तमान के सुखों को छोड़ने वाला पुरुष भी पछताता है ‘आधी छोड़ एक को धावै, ऐसा डूबा थाह न पावैं ।।३४।। परलोक के सुखों की चाह से ठगाये हुए जो मूर्ख मानव प्रत्यक्ष के भागों को छोड़ देते हैं वे मानो सामने परोसा हुआ भोजन छोड़कर हाथ ही चाटते हैं अर्थात् परोक्ष सुख की आशा से वर्तमान के सुख छोड़ना भोजन छोड़कर हाथ चाटने के तुल्य है ।।३५।।
इस प्रकार भूतवादी महामति मन्त्री अपने पक्ष की युक्तियाँ देकर जब चुप हो रहा तब बात करने की खुजली से उत्पन्न हुए कुछ हास्य को धारण करने वाला सम्भिन्नमति नाम का तीसरा मन्त्री भी केवल विज्ञानवाद का आश्रय लेकर जीव का अभाव सिद्ध करता हुआ नीचे लिखे अनुसार अपने मत की सिद्धि करने लगा ।।३६-३७।। वह बोला—हे जीववादिन् स्वयंबुद्ध, आपका कहा हुआ जीव नाम का कोई पृथक् पदार्थ नहीं है क्योंकि उसकी पृथक् उपलब्धि नहीं होती । यह समस्त जगत् विज्ञानमात्र है क्योंकि क्षणभंगुर है । जो-जो क्षण—भंगुर होते हैं वे सब ज्ञान के विकार होते हैं । यदि ज्ञान-विकार न होकर स्वतन्त्र पृथक पदार्थ होते तो वे नित्य होते, परन्तु संसार में कोई नित्य पदार्थ नहीं है इसलिए वे सब ज्ञान के विकारमात्र हैं ।।३८।। वह विज्ञान निरंश है—अवान्तर भागों से रहित है, बिना परम्परा उत्पन्न किये ही उसका नाश हो जाता है और वेद्य-वेदक तथा संवित्तिरूप से भिन्न प्रकाशित होता है । अर्थात् वह स्वभावत: न तो किसी अन्य ज्ञान के द्वारा जाना जाता है और न किसी को जानता ही है, एक क्षण रहकर समूह नष्ट हो जाता है ।।३९।। वह ज्ञान नष्ट होने के पहले ही अपनी सांवृतिक सन्तान छोड़ जाता है जिससे पदार्थों का स्मरण होता रहता है । वह सन्तान अपने सन्तानी ज्ञान से भिन्न नहीं है ।।४०।। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि विज्ञान की सन्तान प्रतिसन्तान मान लेने से पदार्थ का स्मरण तो सिद्ध हो जायेगा परन्तु प्रत्यभिज्ञान सिद्ध नहीं हो सकेगा । क्योंकि प्रत्यभिज्ञान की सिद्धि के लिए पदार्थ को अनेक क्षणस्थायी मानना चाहिए जो कि आपने माना नहीं है । पूर्व क्षण में अनुभूत पदार्थ का द्वितीयादि क्षण में प्रत्यक्ष होने पर जो जोड़रूप ज्ञान होता है उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । उक्त प्रश्न का समाधान इस प्रकार है-क्षणभंगुर पदार्थ में जो प्रत्यभिज्ञान आदि होता है वह वास्तविक नहीं है किन्तु भ्रान्त है । जिस प्रकार की काटे जाने पर फिर से बड़े हुए नखों और केशों में ये वे ही नख केश हैं इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान भ्रान्त होता है ।।४१।। [संसार) स्कन्ध दुःख कहे जाते हैं । वे स्कन्ध विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप के भेद से पाँच प्रकार के कहे गये हैं । पाँचों इन्द्रियाँ, शब्द आदि उनके विषय, मन और धर्मायतन (शरीर) ये बारह आयतन हैं । जिस आत्मा और आत्मीय भाव से संसार में रुलाने वाले रागादि उत्पन्न होते हैं उसे समुदय सत्य कहते हैं । ‘सब पदार्थ क्षणिक हैं’ इस प्रकार की क्षणिक नैरात्म्यभावना मार्ग सत्य है तथा इन स्कन्धों के नाश होने को निरोध अर्थात् मोक्ष कहते हैं ।।४१।। इसलिए विज्ञान की सन्तान से अतिरिक्त जीव नाम का कोई पदार्थ नहीं है जो कि परलोकरूप फल को भोगने वाला हो ।।४२।। अतएव परलोक सम्बन्धी दुःख दूर करने के लिए प्रयत्न करने वाले पुरुषों का परलोकभय वैसा ही है जैसा कि टिटिहरी को अपने ऊपर आकाश के पड़ने का भय होता है ।।४३।।
इस प्रकार विज्ञानवादी सम्भिन्नमति मन्त्री जब अपना अभिप्राय प्रकट कर चुप हो गया तब अपनी प्रशंसा करता हुआ शतमति नाम का चौथा मन्त्री नैरात्म्यवाद (शून्यवाद) का आलम्बन कर नीचे लिखे अनुसार कहने लगा ।।४४।। यह समस्त जगत् शून्यरूप है । इसमें नर, पशु-पक्षी, घट-पट आदि पदार्थों का जो प्रतिभास होता है वह सब मिथ्या है । भ्रान्ति से ही वैसा प्रतिभास होता है जिस प्रकार स्वप्न अथवा इन्द्रजाल आदि में हाथी आदि का मिथ्या प्रतिभास होता है ।।४५।। इसलिए जब कि सारा जगत् मिथ्या है तब तुम्हारा माना हुआ जीव कैसे सिद्ध हो सकता है और उसके अभाव में परलोक भी कैसे सिद्ध हो सकता है क्योंकि यह सब गन्धर्वनगर की तरह असत् स्वरूप है ।।४६।। अत: जो पुरुष परलोक के लिए तपश्चरण तथा अनेक अनुष्ठान आदि करते हैं वे व्यर्थ ही क्लेश को प्राप्त होते हैं । ऐसे जीव यथार्थज्ञान से रहित हैं ।।४७।। जिस प्रकार ग्रीष्मऋतु में मरुभूमि पर पड़ती हुई सूर्य की चमकीली किरणों को जल समझकर मृग व्यर्थ ही दौड़ा करते हैं उसी प्रकार ये भोगाभिलाषी मनुष्य परलोक के सुखों को सच्चा सुख समझकर व्यर्थ ही दौड़ा करते हैं—उनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं ।।४८।। इस प्रकार खोटे दृष्टान्त और खोटे हेतुओं द्वारा सारहीन वस्तु का प्रतिपादन कर जब शतमति भी चुप हो रहा तब स्वयंबुद्ध मन्त्री कहने के लिए उद्यत हुए ।।४९।।
हे भूतवादिन्, ‘आत्मा नहीं है’ यह आप मिथ्या कह रहे हैं क्योंकि पृथ्वी आदि भूतचतुष्टय के अतिरिक्त ज्ञानदर्शनरूप चैतन्य की भी प्रतीति होती है ।।५०।। वह चैतन्य शरीररूप नहीं है और न शरीर चैतन्यरूप ही है क्योंकि दोनों का परस्पर विरुद्ध स्वभाव है । चैतन्य चित्स्वरूप हैं—ज्ञान दर्शनरूप है और शरीर अचित्स्वरूप हैं—जड़ है ।।५१।। शरीर और चैतन्य दोनों मिलकर एक नहीं हो सकते क्योंकि दोनों में परस्पर विरोधी गुणों का योग पाया जाता है । चैतन्य का प्रतिभास तलवार के समान अन्तरंगरूप होता है और शरीर का प्रतिभास म्यान के समान बहिरंगरूप होता है । भावार्थ—जिस प्रकार म्यान में तलवार रहती है । यहाँ म्यान और तलवार दोनों में अभेद नहीं होता उसी प्रकार ‘शरीर में चैतन्य है’ यहाँ शरीर और आत्मा में अभेद नहीं होता । प्रतिभास भेद होने से दोनों ही पृथक्-पृथक् पदार्थ सिद्ध होते हैं ।।५२।। यह चैतन्य न तो पृथिवी आदि भूतचतुष्टय का कार्य है और न उनका कोई गुण ही है । क्योंकि दोनो की जातियाँ पृथक-पृथक् हैं । एक चैतन्यरूप है तो दूसरा जड़रूप है । यथार्थ में कार्यकारणभाव और गुणगुणीभाव सजातीय पदार्थों में ही होता है विजातीय पदार्थों में नहीं होता । इसके सिवाय एक कारण यह भी है कि पृथिवी आदि से बने हुए शरीर का ग्रहण उसके एक अंशरूप इन्द्रियों के द्वारा ही होता है जब कि ज्ञानरूप चैतन्य का स्वरूप अतीन्द्रिय है—ज्ञानमात्र से ही जाना जाता है । यदि चैतन्य, पृथिवी आदि का कार्य अथवा स्वभाव होता तो पृथिवी आदि से निर्मित शरीर के साथ-ही-साथ इन्द्रियों द्वारा उसका भी ग्रहण अवश्य होता, परन्तु ऐसा होता नहीं है । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि शरीर और चैतन्य पृथक्-पृथक् पदार्थ हैं ।।५३। वह चैतन्य शरीर का भी विकार नहीं हो सकता क्योंकि भस्म आदि जो शरीर के विकार है उनसे वह विसदृश होता है । यदि चैतन्य शरीर का विकार होता तो उसके भस्म आदि विकाररूप ही चैतन्य होना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं होता, इससे सिद्ध है कि चैतन्य शरीर का विकार नहीं है । दूसरी बात यह भी है कि शरीर का विकार मूर्तिक होगा परन्तु यह चैतन्य अमूर्तिक है—रूप, रस, गन्ध, स्पर्श से रहित है—इन्द्रियों द्वारा उसका ग्रहण नहीं होता ।।५४।। शरीर और आत्मा का सम्बन्ध ऐसा है जैसा कि घर और दीपक का होता है । आधार और आधेय रूप होने से घर और दीपक जिस प्रकार पृथक् सिद्ध पदार्थ हैं उसी प्रकार शरीर और आत्मा भी पृथक् सिद्ध पदार्थ हैं ।।५५।। आपका सिद्धान्त है कि शरीर के प्रत्येक अंगोपांग की रचना पृथक्-पृथक् भृतचतुष्टय से होती है सो इस सिद्धान्त के अनुसार शरीर के प्रत्येक अंगोपांग में पृथक्-पृथक् चैतन्य होना चाहिए क्योंकि आपका मत है कि चैतन्य भूतचतुष्टय का ही कार्य है । परन्तु देखा इससे विपरीत जाता है । शरीर के सब अंगोपांगों में एक ही चैतन्य का प्रतिभास होता है, उसका कारण यह भी है कि जब शरीर के किसी एक अंग में कण्टकादि चुभ जाता है तब सारे शरीर में दुःख का अनुभव होता है । इससे मालूम होता है कि सब अंगोपांगों में न्यास होकर रहने वाला चैतन्य भूतचतुष्टय का कार्य होता तो वह भी प्रत्येक अंगों में पृथक-पृथक् ही होता ।।५६।। इसके सिवाय इस बात का भी विचार करना चाहिए कि मूर्तिमान् शरीर से मूर्तिरहित चैतन्य की उत्पत्ति कैसे होगी ? क्योंकि मूर्तिमान् और अमूर्तिमान् पदार्थों में कार्यकारण भाव नहीं होता ।।५७।। कदाचित् आप यह कहें कि मूर्तिमान पदार्थ से भी अमूर्तिमान् पदार्थ की उत्पत्ति हो सकती है, जैसे कि मूर्तिमान इन्द्रियों से अमूर्तिमत् ज्ञान उत्पन्न हुआ देखा जाता है, सो भी ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान को हम अमूर्तिक ही मानते हैं ।।५८।। उसका कारण भी यह है कि यह आत्मा मूर्तिक कर्मों के साथ बन्ध को प्राप्त कर एक रूप हो गया है इसलिए कथंचित् मूर्तिक माना जाता है । जब कि आत्मा भी कथंचित् मूर्तिक माना जाता है तब इन्द्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान को भी मूर्तिक मानना उचित है । इससे सिद्ध हुआ कि मूर्तिक पदार्थों से अमूर्तिक पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती ।।५९।। इसके सिवाय एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि पृथिवी आदि भूतचतुष्टय में जो शरीर के आकार परिणमन हुआ है वह भी किसी अन्य निमित्त से हुआ है । यदि उस निमित्त पर विचार किया जाये तो कर्मसहित संसारी आत्मा को छोड़कर और दूसरा क्या निमित्त हो सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं । भावार्थ—कर्मसहित संसारी आत्मा ही पृथिवी आदि को शरीररूप परिणमन करता है, इससे शरीर और आत्मा की सत्ता पृथक् सिद्ध होती है ।।६०।। यदि कहो कि जीव पहले नहीं था, शरीर के साथ ही उत्पन्न होता है और शरीर के साथ ही नष्ट हो जाता है इसलिए जल के बबूले के समान है जैसे जल का बबूला जल में ही उत्पन्न होकर उसी में नष्ट हो जाता है वैसे ही यह जीव भी शरीर के साथ उत्पन्न होकर उसी के साथ नष्ट हो जाता है सो आपका यह मानना ठीक नहीं है क्योंकि शरीर और जीव दोनों ही विलक्षण-विसदृश पदार्थ हैं । विसदृश पदार्थ से विसदृश पदार्थ की उत्पत्ति किसी भी तरह नहीं हो सकती ।।६१।। आपका कहना है कि शरीर से चैतन्य की उत्पत्ति होती हैं—यहाँ हम पूछते हैं कि शरीर चैतन्य की उत्पत्ति में उपादान कारण है अथवा सहकारी कारण उपादान कारण तो हो नहीं सकता क्योंकि उपादेय—चैतन्य से शरीर विजातीय पदार्थ है । यदि सहकारी कारण मानो तो यह हमें भी इष्ट है परन्तु उपादान कारण की खोज फिर भी करनी चाहिए । कदाचित् यह कहो कि सूक्ष्म रूप से परिणत भूतचतुष्टय का समुदाय ही उपादान कारण है तो आपका यह कहना असत् है क्योंकि सूक्ष्म भूतचतुष्टय के संयोग-द्वारा उत्पन्न हुए शरीर से वह चैतन्य पृथक् ही प्रतिभासित होता है । इसलिए जीवद्रव्य को ही चैतन्य का उपादान कारण मानना ठीक है चूँकि वही उसका सजातीय और सलक्षण है ।।६२-६४।। भूतवादी ने जो पुष्प, गुड़, पानी आदि के मिलने से मदशक्ति के उत्पन्न होने का दृष्टान्त दिया है, उपयुक्त कथन से उसका भी निराकरण हो जाता है क्योंकि मदिरा के कारण जो गुड़ आदि हैं वे जड़ और मूर्तिक हैं तथा उनसे जो मादक शक्ति उत्पन्न होती है वह भी जड़ और मूर्तिक है । भावार्थ—मादक शक्ति का उदाहरण विषम है । क्योंकि प्रकृत में आप सिद्ध करना चाहते हैं विजातीय द्रव्य से विजातीय की उत्पत्ति और उदाहरण दे रहे हैं सजातीय द्रव्य से सजातीय की उत्पत्ति का ।।६५।। वास्तव में भूतवादी चार्वाक अपिशाचों से ग्रसित हुआ जान पड़ता है । यदि ऐसा नहीं होता तो इस संसार को जीवरहित केवल पृथिवी, जल, तेज, वायुरूप ही कैसे कहता ।।६६।। कदाचित् भूतवादी यह कहे कि पृथिवी आदि भूतचतुष्टय में चैतन्यशक्ति अव्यक्तरूप से पहले से ही रहती है सो वह भी ठीक नहीं है क्योंकि अचेतन पदार्थ में चेतनशक्ति नहीं पायी जाती, यह बात अत्यन्त प्रसिद्ध है ।।६७।। इस उपयुक्त कथन से सिद्ध हुआ कि जीव कोई भिन्न पदार्थ है और ज्ञान उसका लक्षण है । जैसे इस वर्तमान शरीर में जीव का अस्तित्व है उसी प्रकार पिछले और आगे के शरीर में भी उसका अस्तित्व सिद्ध होता है क्योंकि जीवों का वर्तमान शरीर पिछले शरीर के बिना नहीं हो सकता । उसका कारण यह है कि वर्तमान शरीर में स्थित आत्मा में जो दुग्धपानादि क्रियाएँ देखी जाती हैं वे पूर्वभव का संस्कार ही हैं । यदि वर्तमान शरीर के पहले इस जीव का कोई शरीर नहीं होता और यह नवीन ही उत्पन्न हुआ होता तो जीव की सहसा दुग्धपानादि में प्रवृत्ति नहीं हो सकती । इसी प्रकार वर्तमान शरीर के बाद भी यह जीव कोई-न-कोई शरीर धारण करेगा क्योंकि ऐन्द्रियिक ज्ञानसहित आत्मा बिना शरीर के रह नहीं सकता ।।६८।। जहाँ यह जीव अपने अगले-पिछले शरीरों से युक्त होता है वहीं उसका परलोक कहलाता है और उन शरीरों में रहने वाला आत्मा परलोकी कहा जाता है तथा वही परलोकी आत्मा परलोक सम्बन्धी पुण्य-पापों के फल को भोगता है ।।६९।। इसके सिवाय, जातिस्मरण से जीवन-मरणरूप आवागमन से और आप्त प्रणीत आगम से भी जीव का पृथक् अस्तित्व सिद्ध होता है ।।७०।। जिस प्रकार किसी यन्त्र में जो हलन-चलन होता है वह किसी अन्य चालक की प्रेरणा से होता है । इसी प्रकार इस शरीर में भी जो यातायातरूपी हलन-चलन हो रहा है वह भी किसी अन्य चालक की प्रेरणा से ही हो रहा है वह चालक आत्मा ही है । इसके सिवाय शरीर की जो चेष्टाएँ होती हैं सो हित-अहित के विचारपूर्वक होती हैं—इससे भी जीव का अस्तित्व पृथक् जाना जाता है ।।७१।। यदि आपके कहे अनुसार पृथिवी आदि भूतचतुष्टय के संयोग से जीव उत्पन्न होता है तो भोजन पकाने के लिए आग पर रखी हुई बटलोई में भी जीव की उत्पत्ति हो जानी चाहिए क्योंकि वहाँ भी तो अग्नि, पानी, वायु और पृथिवीरूप भूतचतुष्टय का संयोग होता है ।।७२।। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि भूतवादियों के मत में अनेक दूषण हैं इसलिए यह निश्चय समझिए कि भूतवादियों का मत निरे मूर्खों का प्रलाप है उसमें कुछ भी सार नहीं है ।।७३।।
इसके अनन्तर स्वयं बुद्ध ने विज्ञानवादी से कहा कि आप इस जगत् को विज्ञान मात्र मानते हैं—विज्ञान से अतिरिक्त किसी पदार्थ का सद्भाव नहीं मानते परन्तु विज्ञान से ही विज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि आपके मतानुसार साध्य, साधन दोनों एक हो जाते हैं—विज्ञान ही साध्य होता है और विज्ञान ही साधन होता है । ऐसी हालत में तत्त्व का निश्चय कैसे हो सकता है ? ।।७४।। एक बात यह भी है कि संसार में बाह्यपदार्थों की सिद्धि वाक्यों के प्रयोग से ही होती है । यदि वाक्यों का प्रयोग न किया जाये तो किसी भी पदार्थ की सिद्धि नहीं हो गई और उस अवस्था में संसार का व्यवहार बन्द हो जायेगा । यदि वह वाक्य विज्ञान से भिन्न है तो वाक्यों का प्रयोग रहते हुए विज्ञानाद्वैत सिद्ध नहीं हो सकता । यदि यह कहो कि वे वाक्य भी विज्ञान ही हैं तो हे मुझे, बता कि तूने ‘यह संसार विज्ञान मात्र है’ इस विज्ञानाद्वैत की सिद्धि किसके द्वारा की है ? इसके सिवाय एक बात यह भी विचारणीय है कि जब तू निरंश निर्विभाग विज्ञान को ही मानता है तब ग्राह्य आदि का भेदव्यवहार किस प्रकार सिद्ध हो सकेगा ? भावार्थ—विज्ञान पदार्थों को जानता है इसलिए ग्राहक कहलाता है और पदार्थ ग्राह्य कहलाते हैं जब तू ग्राह्य-पदार्थों की सत्ता ही स्वीकृत नहीं करता तो ज्ञान-ग्राहक किस प्रकार सिद्ध हो सकेगा ? यदि ग्राह्य को स्वीकार करता है तो विज्ञान का अद्वैत नष्ट हुआ जाता है ।।७५-७६।। ज्ञान का प्रतिभास घट-पटादि विषयों के आकार से शून्य नहीं होता अर्थात् घट-पटादि विषयों के रहते हुए ही ज्ञान उन्हें जान सकता है, यदि घट-पटादि विषय न हों तो उन्हें जानने वाला ज्ञान भी नहीं हो सकता । क्या कभी प्रकाश करने योग्य पदार्थों के बिना भी कहीं कोई प्रकाशक प्रकाश करने वाला होता है अर्थात् नहीं होता । इस प्रकार यदि ज्ञान को मानते हो तो उसके विषयभूत पदार्थो को भी मानना चाहिए ।।७७।। हम पूछते हैं कि आपके मत में एक विज्ञान से दूसरे विज्ञान का ग्रहण होता है अथवा नहीं यदि होता है तो आपके माने हुए विज्ञान में निरालम्बता का अभाव हुआ अर्थात् वह विज्ञान निरालम्ब नहीं रहा, उसने द्वितीय विज्ञान को जाना इसलिए उन दोनों में ग्राह्य-ग्राहक भाव सिद्ध हो गया जो कि विज्ञानाद्वैत का बाधक है । यदि यह कहो कि एक विज्ञान दूसरे विज्ञान को ग्रहण नहीं करता तो फिर आप उस द्वितीय विज्ञान को जो कि अन्य सन्तानरूप है, सिद्ध करने के लिए क्या हेतु देंगे कदाचित् अनुमान से उसे सिद्ध करोगे तो घट-पट आदि बाह्य पदार्थों की स्थिति भी अवश्य सिद्ध हो जायेगी क्योंकि जब साध्य-साधनरूप अनुमान मान लिया तब विज्ञानाद्वैत कहाँ रहा ? उसके अभाव में अनुमान के विषयभूत घट-पटादि पदार्थ भी अवश्य मानने पड़ेंगे ।।७८-७९।। यदि यह संसार केवल विज्ञानमय हुई है तो फिर समस्त वाक्य और ज्ञान मिथ्या हो जायेंगे, क्योंकि जब बाह्य घट-पटादि पदार्थ ही नहीं है तो ये वाक्य और ज्ञान सत्य हैं तथा ये असत्य यह सत्यासत्य व्यवस्था कैसे हो सकेगी ? ।।८०।। जब आप साधन आदि का प्रयोग करते हैं तब साधन से भिन्न साध्य भी मानना पड़ेगा और वह साध्य घट-पट आदि बाह्य पदार्थ ही होगा । इस तरह विज्ञान से अतिरिक्त बाह्य पदार्थों का भी सद्भाव सिद्ध हो जाता है । इसलिए आपका यह विज्ञानाद्वैतवाद केवल बालकों की बोली के समान सुनने में ही मनोहर लगता है ।।८१।।
इस प्रकार विज्ञानवाद का खण्डन कर स्वयम्बुद्ध शून्यवाद का खण्डन करने के लिए तत्पर हुए । वे बोले कि—आपके शून्यवाद में भी, शून्यत्व को प्रतिपादन करनेवाले वचन और उनसे उत्पन्न होने वाला ज्ञान है, या नहीं ? इस प्रकार दो विकल्प उत्पन्न होते हैं ।।८२।। यदि आप इन विकल्पों के उत्तर में यह कहें कि हाँ, शून्यत्व को प्रतिपादन करने वाले वचन और ज्ञान दोनों ही हैं; तब खेद के साथ कहना पड़ता है कि आप जीत लिये गये क्योंकि वाक्य और विज्ञान की तरह आपको सब पदार्थ मानने पड़ेंगे । यदि यह कहो कि हम वाक्य और विज्ञान को नहीं मानते तो फिर शून्यता की सिद्धि किस प्रकार होगी भावार्थ—यदि आप शून्यता प्रतिपादक वचन और विज्ञान को स्वीकार करते हैं तो वचन और विज्ञान के विषयभूत जीवादि समस्त पदार्थ भी स्वीकृत करने पड़ेंगे । इसलिए शून्यवाद नष्ट हो जायेगा और यदि वचन तथा विज्ञान को स्वीकृत नहीं करते हैं तब शून्यवाद का समर्थन व मनन किसके द्वारा करेंगे ।।८३।। ऐसी अवस्था में आपका यह शून्यवाद का प्रतिपादन करना उन्मत्त पुरुष के रोने के समान व्यर्थ है । इसलिए यह सिद्ध हो जाता है कि जीव शरीरादि से पृथक् पदार्थ है तथा दया, संयम आदि लक्षण वाला धर्म भी अवश्य है ।।८४।।
तत्वज्ञ मनुष्य उन्हीं तत्त्वों को मानते हैं जो सर्वज्ञ देव के द्वारा कहे हुए हों । इसलिए विद्वानों को चाहिए कि वे आप्ताभास पुरुषों द्वारा कहे हुए तत्त्वों को हेय समझें ।।८५।। इस प्रकार स्वयम्बुद्ध मन्त्री के वचनों से वह सम्पूर्ण सभा आत्मा के सद्भाव के विषय में संशयरहित हो गयी अर्थात् सभी ने आत्मा का पृथक् अस्तित्व स्वीकार कर लिया और सभा के अधिपति राजा महाबल भी अतिशय प्रसन्न हुए ।।८६।। वे परवादीरूपी वृक्ष भी स्वयम्बुद्ध मन्त्री के वचनरूपी वज्र के कठोर प्रहार से शीघ्र ही म्लान हो गये ।।८७।। इसके अनन्तर जब सब सभा शान्तभाव से चुपचाप बैठ गयी तब स्वयम्बुद्ध मन्त्री दृष्ट श्रुत और अनुभूत पदार्थ से सम्बन्ध रखने वाली कथा कहने लगे ।।८८।।
हे महाराज, मैं एक कथा कहता हूँ उसे सुनिए । कुछ समय पहले आपके वंश में चूड़ामणि के समान एक अरविन्द नाम का विद्याधर हुआ था ।।८९।। वह अपने पुण्योदय से अहंकारी शत्रुओं के भुजाओं का गर्व दूर करता हुआ इस उत्कृष्ट अलका नगरी का शासन करता था ।।९०।। वह राजा विद्याधरों के योग्य अनेक उत्तमोत्तम भोगों का अनुभव करता रहता था । उसके दो पुत्र हुए, एक का नाम हरिचन्द्र और दूसरे का नाम कुरुविन्द था ।।९१।। उस अरविन्द राजा ने बहुत आरम्भ को बढ़ाने वाले रौद्रध्यान के चिन्तन से तीव्र दुःख देने वाली नरकआयु का बन्ध कर लिया था ।।९२।। जब उसके मरने के दिन निकट आये तब उसके दाहज्वर उत्पन्न हो गया जिससे दिनों-दिन शरीर का अत्यन्त दुःसह सन्ताप बढ़ने लगा ।।९३।। वह राजा न तो लाल कमलों से सुवासित जल के द्वारा, न पंखों की शीतल हवा के द्वारा, न मणियों के हार के द्वारा और न चन्दन के लेप के द्वारा ही सुख-शान्ति को पा सका था ।।९४।। उस समय पुण्य क्षय होने से उसकी समस्त विद्याएँ उसे छोड़कर चली गयी थीं इसलिए वह उस गजराज के समान अशक्त हो गया था जिसकी कि मदशक्ति सर्वथा क्षीण हो गयी हो ।।९५।। जब वह दाहज्वर से समस्त शरीर में बेचैनी पैदा करने वाले सन्ताप को नहीं सह सका तब उसने एक दिन अपने हरिचन्द्र पुत्र को बुलाकर कहा ।।९६।। हे पुत्र, मेरे शरीर में यह सन्ताप बढ़ता ही जाता है । देखो तो, लाल कमलों की जो मालाएँ सन्ताप दूर करने के लिए शरीर पर रखी गयी थीं वे कैसी मुरझा गयी हैं ।।९७।। इसलिए हे पुत्र, तुम मुझे अपनी विद्या के द्वारा शीघ्र ही उत्तरकुरु देश में भेज दो और उत्तरकुरु में भी उन वनों में भेजना जो कि सीतोदा नदी के तट पर स्थित हैं तथा अत्यन्त शीतल हैं ।।९८।। कल्पवृक्षों को हिलाने वाली तथा सीता नदी की तरंगों से उठी हुई वहाँ की शीतल वायु मेरे इस सन्ताप को अवश्य ही शान्त कर देगी ।।९९।। पिता के ऐसे वचन सुनकर राजपुत्र हरिचन्द्र ने अपनी आकाशगामिनी विद्या भेजी परन्तु राजा अरविन्द का पुण्य क्षीण हो चुका था इसलिए वह विद्या भी उसका उपकार नहीं कर सकी अर्थात् उसे उत्तरकुरु देश नहीं भेज सकी ।।१००।। जब आकाशगामिनी विद्या भी अपने कार्य से विमुख हो गयी तब पुत्र ने समझ लिया कि पिता की बीमारी असाध्य है । इससे वह बहुत उदास हुआ और किंकर्त्तव्यविमूढ़-सा हो गया ।।१०१।। अनन्तर किसी एक दिन दो छिपकली परस्पर में लड़ रही थीं । लड़ते-लड़ते एक की पूँछ टूट गयी, पूँछ से निकली हुई रक्त की कुछ बूँदें राजा अरविन्द के शरीर पर आकर पड़ी ।।१०२।। उन खून की बूँदों से उसका शरीर ठण्डा हो गया—दाहज्वर की व्यथा शान्त हो गयी । पाप के उदय से वह बहुत ही सन्तुष्ट हुआ और विचारने लगा कि आज मैंने दैवयोग से बड़ी अच्छी ओषधि पा ली है ।।१०३।। उसने कुरुविन्द नाम के दूसरे पुत्र को बुलाकर कहा कि हे पुत्र, मेरे लिए खून से भरी हुई एक बावड़ी बनवा दो ।।१०४।। राजा अरविन्द को विभंगावधि ज्ञान था इसलिए विचार कर फिर बोला—इसी समीपवर्ती वन में अनेक प्रकार के मृग रहते हैं उन्हीं से तू अपना काम कर अर्थात् उन्हें मारकर उनके खून से बावड़ी भर दे ।।१०५।। वह कुरुविन्द पाप से डरता रहता था इसलिए पिता के ऐसे वचन सुनकर तथा कुछ विचारकर पापमय कार्य करने के लिए असमर्थ होता हुआ क्षण-भर चुपचाप खड़ा रहा ।।१०६।। तत्पश्चात् वन में गया वहाँ किन्हीं अवधिज्ञानी मुनि से जब उसे मालूम हुआ कि हमारे पिता की मृत्यु अत्यन्त निकट है तथा उन्होंने नरकायु का बन्ध कर लिया है तब वह उस पापकर्म के करने से रुक गया ।।१०७।। परन्तु पिता के वचन भी उल्लंघन करने योग्य नहीं हैं ऐसा मानकर उसने कृत्रिम रुधिर अर्थात् लाख के रंग से भरी हुई एक बावड़ी बनवायी ।।१०८।। पापकार्य करने में अतिशय चतुर राजा अरविन्द ने जब बावड़ी तैयार होने का समाचार सुना तब वह बहुत ही हर्षित हुआ जैसे कोई दरिद्र पुरुष पहले कभी प्राप्त नहीं हुए निधान को देखकर हर्षित होता है ।।१०९।। जिस प्रकार पापी नारकी जीव वैतरणी नदी को बहुत अच्छी मानता है उसी प्रकार वह पापी अरविन्द राजा भी लाख के लाल रंग से धोखा खाकर अर्थात् सचमुच का रुधिर समझकर उस बावड़ी को बहुत अच्छी मान रहा था ।।११०।। जब वह उस बावड़ी के पास लाया गया तो आते ही उसके बीच में सो गया और इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगा । परन्तु कुल्ला करते ही उसे मालूम हो गया कि यह कृत्रिम रुधिर है ।।१११।। यह जानकर पापरूपी समुद्र को बढ़ाने के लिए चन्द्रमा के समान वह बुद्धिरहित राजा अरविन्द, मानो नरक की पूर्ण आयु प्राप्त करने की इच्छा से ही रुष्ट होकर पुत्र को मारने के लिए दौड़ा परन्तु बीच में इस तरह गिरा कि अपनी ही तलवार से उसका हृदय विदीर्ण हो गया तथा मर गया ।।११२-११३।। वह कुमरण को पाकर पाप के योग से नरकगति को प्राप्त हुआ । हे राजन् ! यह कथा इस अलका नगरी में लोगों को आज तक याद है ।।११४।। जिस प्रकार दाँत टूट जाने से न हाथी अपना मुँह नीचा कर लेता है अथवा जिस प्रकार फण का मणि उखाड़ लेने से सर्प तेज रहित हो जाता है अथवा सूर्य अस्त हो जाने से जिस प्रकार कमल मुरझा जाता है उसी प्रकार पिता की मृत्यु से कुरुविन्द ने अपना मुँह नीचा कर लिया, उसका सब तेज जाता रहा तथा सारा शरीर मुरझा गया—शिथिल हो गया । इस प्रकार वह शोचनीय अवस्था को प्राप्त हुआ था ।।११५-११६।।
हे राजन् अब दूसरी कथा सुनिए—समुद्र के समान विस्तीर्ण आपके इस वंश में एक दण्ड नाम का विद्याधर हो गया है । वह बड़ा प्रतापी था । उसने अपने समस्त शत्रुओं को दण्डित किया था ।।११७।। जिस प्रकार समुद्र से मणि उत्पन्न होता है उसी प्रकार उस दण्ड विद्याधर से भी मणिमाली नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । जब वह बड़ा हुआ तब राजा दण्ड ने उसे युवराज पद पर नियुक्त कर दिया और आप इच्छानुसार भोग भोगने लगा ।।११८।। वह विषयों में इतना अधिक उलूक हो रहा था कि चिरकाल तक भोगों को भोगकर भी तृप्त नहीं होता था बल्कि स्त्री, वस्त्र तथा आभूषण आदि में पहले की अपेक्षा अधिक आसक्त होता जाता था ।।११९।। अत्यन्त विषयासक्ति के कारण मायाचारी चेष्टाओं को करनेवाले उस आर्तध्यानी राजा ने तीव्र संक्लेश भावों से तिर्यच आयु का बन्ध किया ।।१२०।। चूँकि मरते समय उसका आर्तध्यान नाम का कुध्यान पूर्णता को प्राप्त हो रहा था, इसलिए कुमरण से मरकर वह मोह के उदय से अपने भण्डार में बड़ा भारी अजगर हुआ ।।१२१।। उसे जातिस्मरण भी हो गया था इसलिए वह भण्डारी की तरह भण्डार में केवल अपने पुत्र को ही प्रवेश करने देता था अन्य को नहीं ।।१२२।। एक दिन अतिशय बुद्धिमान् राजा मणिमाली किन्हीं अवधिज्ञानी मुनिराज से पिता के अजगर होने आदि का समस्त वृत्तान्त मालूम कर पितृभक्ति से उनका मोह दूर करने के लिए भण्डार में गया और धीरे से अजगर के आगे खड़ा होकर स्नेहयुक्त वचन कहने लगा ।।१२३-१२४।। हे पिता, तुमने धन, ऋद्धि आदि में अत्यन्त ममत्व और विषयों में अत्यन्त आसक्ति की थी इसी दोष से तुम इस समय इस कुयोनि में सर्पपर्याय में आकर पड़े हो ।।१२५।। यह विषयरूपी आमिष अत्यन्त कटुक है, दुर्जर है और किंपाक (विषफल फल के समान है इसलिए धिक्कार के योग्य है । हे पिताजी, इस विषयरूपी आमिष को अब भी छोड़ दो ।।१२६।।
हे तात, जिस प्रकार रथ का पहिया निरन्तर संसार-परिभ्रमण करता रहता है—चलता रहता है उसी प्रकार यह विषय भी निरन्तर संसार-परिभ्रमण करता रहता है-स्थिर नहीं रहता अथवा संसार चतुर्गतिरूप संसार का वन्य करता रहता है । यद्यपि यह कण्ठस्थ प्राणों के समान कठिनाई से छोड़े जाते हैं परन्तु त्याज्य अवश्य हैं ।।१२७।। ये विषय शिकारी के गाने के समान हैं जो पहले मनुष्यरूपी हरिणों को ठगने के लिए विश्वास दिलाते हैं और वाद में भयंकर हो प्राणों का हरण किया करते हैं ।।१२८।। जिस प्रकार ताम्बूल चूना, खैर और सुपारी का संयोग पाकर राग-लालिमा को बढ़ाते हैं उसी प्रकार ये विषय भी स्त्री-पुत्रादि का संयोग पाकर रागस्नेह को बढ़ाते हैं और बढ़ते हुए अन्धकार के समान समीचीन भाग को रोक देते हैं ।।१२५।। जिस प्रकार जैनमत मतान्तरों का खण्डन कर देता है उसी प्रकार ये विषय भी पिता, गुरु आदि के हितोपदेशरूपी मतों का खण्डन कर देते हैं । ये बिजली की चमक के समान चञ्चल हैं और इंद्रधनुष के समान विचित्र हैं ।।१३०।। अधिक कहने से क्या लाभ ? देखो, विषयों से उत्पन्न हुआ यह विषयसुख इस जीव की संसाररूपी अटवी में घुमाता है ।।१३१।। जो इस विषय रस की आसक्ति से विमुख रहकर अपने आत्मा को अपने आपमें स्थिर रखते हैं ऐसे मुनियों के समूह को नमस्कार हो । वृक्ष का राजा मणिमाली ने विषयों की निन्दा की ।।१३२ ।। तदनन्तर अपने पुत्र के धर्मवाक्यरूपी सूर्य के द्वारा उस अजगर का सम्पूर्ण मोहरूपी गाढ़ अन्धकार नष्ट हो गया ।।१३३।। उस अजगर को अपने पिछले जीवन पर भारी पश्चात्ताप हुआ और उसने धर्मरूपी ओषधि ग्रहण कर महाविष के समान भयंकर विषयासक्ति छोड़ दी ।।१३४।। उसने संसार से भयभीत होकर आहार-पानी छोड़ दिया, शरीर से भी ममत्व त्याग दिया और उसके प्रभाव से वह आयु के अन्त में शरीर त्याग कर बड़ी ऋद्धि का धारक देव हुआ ।।१३५।। उस देव ने अवधिज्ञान के द्वारा अपने पूर्व भव जान मणिमाली के पास आकर उसका सत्कार किया तथा उसे प्रकाशमान मणियों से शोभायमान एक मणियों का हार दिया ।।१३६।। रत्नों की किरणों से शोभायमान तथा लक्ष्मी के हास के समान निर्मल वह हार आज भी आपके कण्ठ में दिखायी दे रहा है ।।१३७।। हे राजन्, इसके सिवाय एक और भी वृत्तान्त मैं ज्यों का त्यों कहता हूँ । उस वृत्तान्त के देखने वाले कितने ही वृद्ध विद्याधर आज भी विद्यमान हैं ।।१३८।। शतबल नाम के आपके दादा हो गये हैं जो अपने मनोहर गुणों के द्वारा प्रजा को हमेशा सुयोग्य राजा से युक्त करते थे ।।१३९।। उन भाग्यशाली शतबल ने चिरकाल तक राज्य भोग कर आपके पिता के लिए राज्य का भार सौंप दिया था और स्वयं भोगों से निःस्पृह हो गये थे ।।१४०।। उन्होंने सम्यग्दर्शन से पवित्र होकर श्रावक के व्रत ग्रहण किये थे और विशुद्ध परिणामों से देवायु का बन्ध किया था ।।१४१।। उनने उपवास अवमोदर्य आदि सत्प्रवृत्ति को धारण कर आयु के अन्त में यथायोग्य रीति से समाधिमरण पूर्वक शरीर छोड़ा ।।१४२।। जिससे महेन्द्रस्वर्ग में बड़ी-बड़ी ऋद्धियों के धारक श्रेष्ठ देव हुए । वहाँ वे अणिमा, महिमा आदि गुणों से सहित थे तथा सात सागर प्रमाण उनकी स्थिति थी ।।१४३।। किसी एक दिन आप सुमेरु पर्वत के नन्दनवन में क्रीड़ा करने के लिए मेरे साथ गये हुए थे वहीं पर वह देव भी आया था । आपको देखकर बड़े स्नेह के साथ उसने उपदेश दिया था कि हे कुमार, यह जैनधर्म ही उत्तम धर्म है यही स्वर्ग आदि अभ्युदयों की प्राप्ति का साधन है इसे तुम कभी नहीं भूलना ।।१४४-१४५।। यह कथा कहकर स्वयंबुद्ध कहने लगा कि—
‘‘हे राजन् आपके पिता के दादा का नाम सहस्त्रबल था । अनेक विद्याधर राजा उन्हें नमस्कार करते थे और अपने मस्तक पर उनकी आज्ञा धारण करते थे ।।१४६।। उन्होंने भी अपने पुत्र शतबल महाराज को राज्य देकर मोक्ष प्राप्त करने वाली उत्कृष्ट जिनदीक्षा ग्रहण की थी ।।१४७।। वे तपरूपी किरणों के द्वारा समस्त पृथिवी को प्रकाशित करते और मिथ्यात्वरूपी अन्धकार की घटा को विघटित करते हुए सूर्य के समान विहार करते रहे ।।१४८।। फिर क्रम से केवलज्ञान प्राप्त कर मनुष्य, देव और धरणेन्द्रों के द्वारा पूजित हो अनन्त अपार और नित्य मोक्ष पद को प्राप्त हुए ।।१४९।। हे आयुष्मन् इसी प्रकार इन्द्रियों को वश में करने वाले आपके पिता भी आपके लिए राज्यभार सौंप कर वैराग्यभाव से उत्कृष्ट जिनदीक्षा को प्राप्त हुए है और पुत्र, पौत्र तथा अनेक विद्याधर राजाओं के साथ तपस्या करते हुए मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करना चाहते हैं ।।१५०-१५१।। हे राजन् मैंने धर्म और अधर्म के फल का दृष्टान्त देने के लिए ही आपके वंश में उत्पन्न हुए उन विद्याधर राजाओं का वर्णन किया है जिनके कि कथारूपी दुन्दुभि अत्यन्त प्रसिद्ध हैं ।।१५२।। आप ऊपर कहे हुए चारों दृष्टान्तों को चारों ध्यानों का फल समझिए क्योंकि राजा अरविन्द रौद्रध्यान के कारण नरक गया । दण्ड नाम का राजा आर्तध्यान से भण्डार में अजगर हुआ राजा शतबल धर्मध्यान के प्रताप से देव हुआ और राजा सहस्त्रबल ने शुक्लध्यान के माहात्म्य से मोक्ष प्राप्त किया । इन चारों ध्यानों में से पहले के दो—आर्त और रौद्रध्यान अशुभ ध्यान है जो कुगति के कारण हैं और आगे के दो—धर्म तथा शुक्लध्यान शुद्ध हैं, वे स्वर्ग और मोक्ष के कारण हैं ।।१५३।। इसलिए हे बुद्धिमान् महाराज, धर्मसेवन करने वाले पुरुषों को न तो स्वर्गादिक के भोग दुर्लभ हैं और न मोक्ष ही । यह बात आप प्रत्यक्ष प्रमाण तथा सर्वज्ञ वीतराग के उपदेश से निश्चित कर सकते हैं ।।१५४।। हे राजन् यदि आप निर्दोष फल चाहते हैं तो आपको भी जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहे हुए प्रसिद्ध महिमा से युक्त इस जैन धर्म की उपासना करनी चाहिए ।।१५५।। इस प्रकार स्वयम्बुद्ध मन्त्री के कहे हुए उदार और गम्भीर वचन सुनकर वह सम्पूर्ण सभा बड़ी प्रसन्न हुई तथा परम आस्तिक्य भाव को प्राप्त हुई ।।१५६।। स्वयम्बुद्ध के वचनों से समस्त सभासदों को यह विश्वास हो गया कि यह जिनेन्द्रप्रणीत धर्म ही वास्तविक तत्त्व है अन्य मत-मतान्तर नहीं ।।१५७।। तत्पश्चात् समस्त सभासद् उसकी इस प्रकार स्तुति करने लगे कि यह स्वयम्बुद्ध सम्यग्दृष्टि है, व्रती है, गुण और शील से सुशोभित है, मन, वचन, काय का सरल है, गुरुभक्त है, शास्त्रों का वेत्ता है, अतिशय बुद्धिमान् है, उत्कष्ट श्रावकों के योग्य उत्तम गुणों से प्रशंसनीय है और महात्मा है ।।१५८-१५९।। विद्याधरों के अधिपति महाराज महाबल ने भी महाबुद्धिमान् स्वयम्बुद्ध की प्रशंसा कर उसके कहे हुए वचनों को स्वीकार किया तथा प्रसन्न होकर उसका अतिशय सत्कार किया ।।१६०।। इसके बाद किसी एक दिन स्वयम्बुद्ध मन्त्री अकृत्रिम चैत्यालय में विराजमान जिन-प्रतिमाओं की भक्तिपूर्वक वन्दना करने की इच्छा से मेरुपर्वत पर गया ।।१६१।। वह पर्वत जिनेन्द्र भगवान् के समवसरण के समान शोभायमान हो रहा है क्योंकि जिस प्रकार समवसरण (अशोक, सप्तच्छद, आम्र और चम्पक) चार वनों से सुशोभित होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी चार (भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक वनों से सुशोभित है । वह अनादि निधन है तथा प्रमाण से (एक लाख योजन) सहित है इसलिए श्रुतस्कन्ध के समान है क्योंकि आर्यदृष्टि से श्रुतस्कन्ध भी अनादिनिधन है और प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणों से सहित है । अथवा वह पर्वत किसी उत्तम महाराज के समान है क्योंकि जिस प्रकार महाराज अनेक महीभृतों (राजाओं) का अधीश होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी अनेक महीभृतों ( पर्वतों) का अधीश है । महाराज जिस प्रकार सुवृत्त (सदाचारी) और सदास्थिति (समीचीन सभा से युक्त) होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी सुवृत्त (गोलाकार) और सदास्थिति (सदा विद्यमान) रहता है । तथा महाराज जिस प्रकार प्रवृद्धकटक बड़ी सेना का नायक) होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी प्रवृद्धकटक (ऊँचे शिखर वाला) है । अथवा वह पर्वत आदि पुरुष श्री वृषभदेव के समान जान पड़ता है क्योंकि सुधार वृषभदेव जिस प्रकार सर्वलोकोत्तर हैं—लोक में सबसे श्रेष्ठ हैं उसी प्रकार वह पर्वत भी सर्वलोकोत्तर है—सब देशों से उत्तर दिशा में विद्यमान है । भगवान् जिस प्रकार सब मध्य को (सब राजाओं में) ज्येष्ठ थे उसी प्रकार वह पर्वत भी सब भूभृतों (पर्वतों में ज्येष्ठ-उत्कृष्ट है । भगवान् जिस प्रकार महान् थे उसी प्रकार वह पर्वत भी महान् है और भगवान् जिस प्रकार सुवर्ण वर्ण के थे उसी प्रकार वह पर्वत भी सुवर्ण वर्ण का है । अथवा वह मेरु पर्वत इन्द्र के समान सुशोभित है क्योंकि इन्द्र जिस प्रकार वज्र (वज्रमयी शस्त्र) से सहित होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी वज्र (हीरों) से सहित होता है । इन्द्र जिस प्रकार अप्सरःसंश्रय (अप्सराओं का आश्रय) होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी अप्सरःसंश्रय (जल से भरे हुए तालाबों का आधार) है । और इन्द्र का शरीर जैसे चारों और फैलती हुई ज्योति (तेज) से सुशोभित होता है उसी प्रकार उस पर्वत का शरीर भी चारों ओर फैले हुए ज्योतिषी देवों से सुशोभित है । सौधर्म स्वर्ग का इन्द्रक विमान इस पर्वत की चूलिका के अत्यन्त निकट है (बालमात्र के अन्तर से विद्यमान है) इसलिए ऐसा मालूम होता है मानो स्वर्गलोक को धारण करने के लिए एक ऊँचा खम्भा ही खड़ा हो । वह पर्वत अपनी कटनियों से जिन वन-पंक्तियों को धारण किये हुए है वे हमेशा फूलों से उज्ज्वल रहती हैं तथा ऐसी मालूम होती हैं मानो कल्पवृक्षों के साथ स्पर्धा करके ही सब ऋतुओं के फल फूल दे रही हों । वह पर्वत सुवर्णमय है ऊंचाई और अनेक रत्नों की कान्ति से सहित है इसलिए ऐसा जान पड़ता है मानो जिनेन्द्रदेव के अभिषेक के लिए देवों के द्वारा बनाया हुआ सुवर्णमय ऊँचा और रत्नखचित सिंहासन ही हो । उस पर्वत पर श्री जिनेन्द्रदेव का अभिषेक होता है तथा अनेक चैत्यालय विद्यमान हैं मानो इन्हीं दो कारणों से उत्पन्न हुए पुण्य के द्वारा वह बिना किसी रोक-टोक के स्वर्ग को प्राप्त हुआ है अर्थात् स्वर्ग तक ऊँचा चला गया है । अथवा वह पर्वत लवणसमुद्र के नीले जलरूपी सुन्दरवस्त्रों को धारण किये हुए जम्बूद्वीपरूपी महाराज के अच्छी तरह लगाये गये मुकुट के समान मालूम होता है । अथवा यह जगत् एक सरोवर के समान है क्योंकि यह सरोवर की भाँति ही कुलाचलरूपी बड़ी ऊँची लहरों से शोभायमान है, संगीत के लिए बजते हुए बाजों के शब्दरूपी पक्षियों के शब्दों से सुशोभित है, गङ्गा, सिन्धु आदि महानदियों के जलरूपी मृणाल से विभूषित है, नन्दनादि महावनरूपी कमलपत्रों से आच्छन्न है, सुर और असुरों के सभाभवनरूपी कमलों से शोभित है, तथा सुखरूप मकरन्द के प्रेमी जीवरूपी भ्रमरावली को धारण किये हुए है । ऐसे इस जगत्रूपी सरोवर के बीच में वह पीत वर्ग का सुवर्णमय मेरु पर्वत ऐसा जान पड़ता है मानो प्रलयकाल के पवन से बड़ा हुआ तथा एक जगह इकट्ठा हुआ कमलों की केशर का समूह हो । वास्तव में वह पर्वत, पर्वतों का राजा है क्योंकि राजा जिस प्रकार रत्नजड़ित कटकों (कड़ों) से युक्त होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी रत्नजड़ित कटकों (शिखरों) से युक्त है और राजा जिस प्रकार मुकुट से शोभायमान होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी चूलिकारूपी देदीप्यमान मुकुट से शोभायमान है । इस प्रकार वर्णन युक्त तथा जिनमन्दिरों से शोभायमान वह मेरु पर्वत स्वयम्बुद्ध मन्त्री ने देखा ।।१६२-१७५।। अद्भूत शोभायुक्त उस मेरु पर्वत को देखता हुआ वह मन्त्री अत्यन्त आनन्द को प्राप्त हुआ और बड़े आश्चर्य से उसके समीपवर्ती प्रदेशों का नीचे लिखे अनुसार निरूपण करने लगा ।।१७६।। इस गिरिराज ने अपने शिखरों के अग्रभाग से समस्त आकाशरूपी आंगन को घेर लिया है जिससे ऐसा शोभायमान होता है मानो लोकनाड़ी की लम्बाई ही नाप रहा हो ।।१७७।। मनोहर तथा घनी छाया वाले वृक्षों से शोभायमान इस पर्वत के शिखरों पर वे देव लोग अपनी-अपनी देवियों के साथ सदा निवास करते हैं ।।१७८।। इस पर्वत के प्रत्यन्त पर्वत (समीपवर्ती छोटी-छोटी पर्वत श्रेणियाँ) यहाँ से लेकर निषध और नील पर्वत तक चले गये हैं सो ठीक ही है क्योंकि बड़ों की चरण सेवा करने वाला कौन पुरुष बड़प्पन को प्राप्त नहीं होता ।।१७९।।। इसके चरणों (प्रत्यन्त पर्वतों) के आश्रित रहने वाले ये गजदन्त पर्वत ऐसे जान पड़ते हैं मानो निषध और नील पर्वत ने भक्तिपूर्वक सेवा के लिए अपने हाथ ही फैलाये हों ।।१८०।। ये सीता, सीतोदा नाम की महानदियों मानो भय से ही इसके पास नहीं आकर दो कोश की दूरी से समुद्र की ओर जा रही हैं ।।१८१।। इस पर्वत के चारों ओर यह भद्रशाल वन है जो अपनी शोभा से देवकुरु तथा उत्तरकुरु की शोभा को तिरस्कृत कर रहा है और अपने वृक्षों के द्वारा इस पर्वत सम्बन्धी चारों ओर के भूमिभाग को सदा अलंकृत करता रहता है ।।१८२।। इधर नन्दनवन, इधर सौमनस वन और इधर पाण्डुक वन शोभायमान है । ये तीनों ही वन सदा फूले हुए वृक्षों से अत्यन्त मनोहर है ।।१८३।। इधर ये अर्धचन्द्राकार देवकुरु तथा उत्तरकुरु शोभायमान हो रहे हैं, इधर शोभावान् जम्बूवृक्ष है और इधर यह शाल्मली वृक्ष है ।।१८४।। इस पर्वत के चारों वनों में ये जिनेन्द्रदेव के चैत्यालय शोभायमान हैं जो कि रत्नों की कान्ति से भासमान अपने शिखरों के द्वारा आकाशरूपी आंगन को प्रकाशित कर रहे हैं ।।१८५।। यह पर्वत सदा पुण्यजनों (यक्षों) से व्याप्त रहता है । अनेक बाग-बगीचे तथा जिनालयों से सहित है तथा इसके समीप ही अनेक नदियाँ और विदेह क्षेत्र विद्यमान हैं इसलिए यह किसी नगर के समान मालूम हो रहा है । क्योंकि नगर भी सदा पुण्यजनों (धर्मात्मा लोगों) से व्याप्त रहता है, बाग-बगीचे और जिन-मन्दिरों से सहित होता है तथा उसके समीप अनेक नदियाँ और खेत विद्यमान रहते हैं ।।१८६।। अथवा यह पर्वत संसारी जीवरूपी भ्रमरों से सहित तथा भरतादि क्षेत्ररूपी पत्रों से शोभायमान इस जम्बूद्वीपरूपी कमल की कर्णिका के समान भासित होता है ।।१८७।। इस प्रकार उत्कृष्ट महिमा से युक्त यह सुमेरुपर्वत, जान पड़ता है कि आज भी तीनों लोकों की लम्बाई का उल्लंघन कर रहा है ।।१८८।। इस तरह दूर से ही वर्णन करता हुआ स्वयम्बुद्ध मन्त्री उस मेरु पर्वत पर ऐसा जा पहुँचा मानो जिनमन्दिरों ने अपने ध्वजारूपी हाथों से उसे आदरसहित बुलाया ही हो ।।१८९।। वहाँ अनादिनिधन, हमेशा प्रकाशित रहने वाले और देवों से पूजित अकृत्रिम चैत्यालयों को पाकर वह स्वयंबुद्ध मन्त्री परम आनन्द को प्राप्त हुआ ।।१९०।। उसने पहले प्रदक्षिणा दी । फिर भक्तिपूर्वक बार-बार नमस्कार किया और फिर पूजा की । इस प्रकार यथाक्रम से भद्रशाल आदि वनों की समस्त अकृत्रिम प्रतिमाओं की वन्दना की ।।१९१।। वन्दना के बाद उसने सौमनसवन के पूर्व दिशा सम्बन्धी चैत्यालय में पूजा की तथा भक्तिपूर्वक प्रणाम करके क्षण-भर के लिए वह वहीं बैठ गया ।।१९२।।
इतने में ही उसने पूर्व विदेह क्षेत्र सम्बन्धी महाकच्छ देश के अरिष्ट नामक नगर से आये हुए, आकाश में चलने वाले आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो मुनि अकस्मात् देखे । वे दोनों ही मुनि युगन्धर स्वामी के समवसरणरूपी सरोवर के मुख्य हंस थे ।।१९३-१९४।। अतिशय बुद्धिमान् स्वयम्बुद्ध मन्त्री ने सम्मुख जाकर उनकी पूजा की, बार-बार प्रणाम किया और जब वे सुखपूर्वक बैठ गये तब उनसे नीचे लिखे अनुसार अपने मनोरथ पूछे ।।१९५।। हे भगवन् आप जगत् को जानने के लिए अवधिज्ञानरूपी प्रकाश धारण करते हैं इसलिए आप से मैं कुछ मनोगत बात पूछता हूँ, कृपा कर उसे कहिए ।।१९६।। हे स्वामिन् इस लोक में अत्यन्त प्रसिद्ध विद्याधरों का अधिपति राजा महाबल हमारा स्वामी है वह भव्य है अथवा अभव्य ? इस विषय में मुझे संशय है ।।१९७।। जिनेन्द्रदेव के कहे हुए सन्मार्ग का स्वरूप दिखाने वाले हमारे वचनों को जैसे वह प्रमाणभूत मानता है वैसे श्रद्धान भी करेगा या नहीं यह बात मैं आप दोनों के अनुग्रह से जानना चाहता हूँ ।।१९८।। इस प्रकार प्रश्न कर जब स्वयम्बुद्ध मन्त्री चुप हो गया तब उनमें से आदित्यगति नाम के अवधिज्ञानी मुनि कहने लगे ।।१९५।। हे भव्य, तुम्हारा स्वामी भव्य ही है, वह तुम्हारे वचनों पर विश्वास करेगा और दसवें भव में तीर्थंकर पद भी प्राप्त करेगा ।।२००।। वह इसी जम्बूद्वीप के भरत नामक क्षेत्र में आने वाले युग के प्रारम्भ में ऐश्वर्यवान् प्रथम-तीर्थंकर होगा ।।२०१।। अब में संक्षेप से इसके उस वैभव का वर्णन करता हूँ जहाँ कि इसने भोगों की इच्छा के साथ-साथ धर्म का बीज बोया था । राजन् तुम सुनो ।।२०२।। इसी जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत से पश्चिम की ओर विदेह क्षेत्र में एक गन्धिला-नाम का देश है उसमें सिंहपुर नाम का नगर है जो कि इन्द्र के नगर के समान सुन्दर है । उस नगर में एक श्रीषेण नाम का राजा हो गया है । वह राजा चन्द्रमा के समान सबको प्रिय था । उसकी एक अत्यन्त सुन्दर सुन्दरी नाम की स्त्री थी ।।२०३-२०४।। उन दोनों के पहले जयवर्मा नाम का पुत्र हुआ और उसके बाद उसका छोटा भाई श्रीवर्मा हुआ । वह श्रीवर्मा सब लोगों को अतिशय प्रिय था ।।२०५।। वह छोटा पुत्र माता-पिता के लिए भी स्वभाव से ही प्यारा था सो ठीक ही है सन्तानपना समान रहने पर भी किसी पर अधिक प्रेम होता ही है ।।२०६।। पिता श्रीषेण ने मनुष्यों का अनुराग तथा उत्साह देखकर छोटे पुत्र श्रीवर्मा के मस्तक पर ही राज्यपट्ट बाँधा और इसके बड़े भाई जयवर्मा की उपेक्षा कर दी ।।२०७।। पिता की इस उपेक्षा से जयवर्मा को बड़ा वैराग्य हुआ जिससे वह अपने पापों की निन्दा करता हुआ स्वयंप्रभगुरु से दीक्षा लेकर तपस्या करने लगा ।।२०८।। जयवर्मा अभी नवदीक्षित ही था—उसे दीक्षा लिये बहुत समय नहीं हुआ था कि उसने विभूति के साथ आकाश में जाते हुए महीधर नाम के विद्याधर को आँख उठाकर देखा । उस विद्याधर को देखकर जयवर्मा ने निदान किया कि मुझे आगामी भव में बड़े-बड़े विद्याधरों के भोग प्राप्त हों । वह ऐसा विचार ही रहा था कि इतने में एक भयंकर सर्प ने बामी से निकलकर उसे डस लिया । वह भोगों की इच्छा करते हुए ही मरा था इसलिए यहाँ महाबल हुआ है और कभी तृप्त न करने वाले विद्याधरों के उचित भोगों को भोग रहा है । पूर्वभव के संस्कार से ही वह चिरकाल तक भोगों में अनुरक्त रहा है किन्तु आपके वचन सुनकर शीघ्र ही इनसे विरक्त होगा ।।२०९-२१२।। आज रात को उसने स्वप्न में देखा है कि तुम्हारे सिवाय अन्य तीन दुष्ट मन्त्रियों ने उसे बलात्कार किसी भारी कीचड़ में फँसा दिया है और तुमने उन दुष्टों मन्त्रियों की भर्त्सना कर उसे कीचड़ से निकाला है और सिंहासन पर बैठाकर उसका अभिषेक किया है ।।२१३-२१४।। इसके सिवाय दूसरे स्वप्न में देखा है कि अग्नि की एक प्रदीप्त ज्वाला बिजली के समान चंचल और प्रतिक्षण क्षीण होती जा रही है । उसने ये दोनों स्वप्न आज ही रात्रि के अन्तिम समय में देखे हैं ।।२१५।। अत्यन्त स्पष्ट रूप से दोनों स्वप्नों को देख वह तुम्हारी प्रतीक्षा करता हुआ ही बैठा है इसलिए तुम शीघ्र ही जाकर उसे समझाओ ।।२१६।। वह पूछने के पहले ही आप से इन दोनों स्वप्नों को सुनकर अत्यन्त विस्मित होगा और प्रसन्न होकर निःसन्देह आपके समस्त वचनों को स्वीकृत करेगा ।।२१७।। जिस प्रकार प्यासा चातक मेघ में पड़े हुए जल में, और जन्मान्ध पुरुष तिमिर रोग दूर करने वाली श्रेष्ठ ओषधि में अतिशय प्रेम करता है उसी प्रकार मुक्तिरूपी सी की दूत के समान काललब्धि के द्वारा प्रेरित हुआ महाबल आप से प्रबोध पाकर समीचीन धर्म में अतिशय प्रेम करेगा ।।२१८-२१९।। राजा महाबल ने जो पहला स्वप्न देखा है उसे तुम उसके आगामी भव में प्राप्त होने वाली विभूति का सूचक समझों और द्वितीय स्वप्न को उसकी आयु के अतिशय ह्रास को सूचित करने वाला जानो ।।२२०।। यह निश्चित है कि अब उसकी आयु एक माह की ही शेष रह गयी है इसलिए हे भद्र, इसके कल्याण के लिए शीघ्र ही प्रयत्न करो, प्रमादी न होओ ।।२२१।। यह कहकर और स्वयंबुद्ध मन्त्री को आशीर्वाद देकर गगनगामी आदित्यगति नाम के मुनिराज अपने साथी अरिंजय के साथ-साथ अन्तर्हित हो गये ।।२२२।। मुनिराज के वचन सुनने से कुछ व्याकुल हुआ स्वयंबुद्ध भी महाबल के समझाने के लिए शीघ्र ही वहाँ से लौट आया ।।२२३।। और तत्काल ही महाबल के पास जाकर उसे प्रतीक्षा में बैठा हुआ देख प्रारम्भ से लेकर स्वप्नों के फल पर्यन्त विषय को सूचित करने वाले ऋषिराज के समस्त वचन सुनाने लगा ।।२२४।। तदनन्तर उसने यह उपदेश भी दिया कि हे बुद्धिमन्, जिनेन्द्र भगवान् का कहा हुआ यह धर्म ही समस्त दुःखों की परम्परा का नाश करने वाला है इसलिए उसी में बुद्धि लगाइए, उसी का पालन कीजिए ।।२२५।। बुद्धिमान् महाबल ने स्वयंबुद्ध से अपनी आयु का क्षय जानकर विधिपूर्वक शरीर छोड़ने—समाधिमरण धारण करने में अपना चित्त लगाया ।।२२६।। अतिशय समृद्धिशाली राजा अपने घर के बगीचे के जिनमन्दिर में भक्तिपूर्वक आष्टाह्निक महायज्ञ करके वहीं दिन व्यतीत करने लगा ।।२२७।। वह अपना वैभवशाली राज्य अतिबल नामक पुत्र को सौंपकर तथा मन्त्री आदि समस्त लोगों से पूछकर परम स्वतन्त्रता को प्राप्त हो गया ।।२२८।। तत्पश्चात् वह शीघ्र ही परमपूज्य सिद्धकूट चैत्यालय पहुँचा । वहाँ उसने सिद्ध प्रतिमाओं की पूजा कर निर्भय हो संन्यास धारण किया ।।२२९।। बुद्धिमान् महाबल ने गुरु की साक्षीपूर्वक जीवनपर्यन्त के लिए आहार पानी तथा शरीर से ममत्व छोड़ने की प्रतिज्ञा की और वीरशय्या आसन धारण की ।।२३०।। वह महाबल आराधनारूपी नाव पर आरूढ़ होकर संसाररूपी सागर को तैरना चाहता था इसलिए उसने स्वयंबुद्ध मन्त्री को निर्यापकाचार्य (सल्लेखना की विधि कराने वाले आचार्य, पक्ष में—नाव चलाने वाला खेवटिया) बनाकर उसका बहुत ही सम्मान किया ।।२३१।। वह शत्रु, मित्र आदि में समता धारण करने लगा, सब जीवों के साथ मैत्रीभाव का विचार करने लगा, हमेशा अनुत्सुक रहने लगा और बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर परिग्रहत्यागी मुनि के समान मालूम होने लगा ।।२३२।। वह धीर-वीर महाबल शरीर तथा आहार त्याग करने का व्रत धारण कर आराधनाओं की परम विशुद्धि को प्राप्त हुआ था, उस समय उसका चित्त भी अत्यन्त स्थिर था ।।२३३।। उस धीर-वीर ने प्रायोपगमन नाम का संन्यास धारण कर शरीर से बिलकुल ही स्नेह छोड़ दिया था इसलिए वह शरीर रक्षा के लिए न तो स्वकृत उपकारों की इच्छा रखता था और न परकृत उपकारों की ।।२३४।। भावार्थ—संन्यास मरण के तीन भेद हैं—१. भक्त प्रत्याख्यान, २. इंगिनीमरण और ३. प्रायोपगमन । (१) भक्तप्रतिज्ञा अर्थात् भोजन की प्रतिज्ञा कर जो संन्यासमरण हो उसे भक्तप्रतिज्ञा कहते हैं, इसका काल अन्तर्मुहूर्त से लेकर बारह वर्ष तक का है । (२) अपने शरीर की सेवा स्वयं करे, किसी दूसरे से रोगादि का उपचार न करावे । ऐसे विधान से जो संन्यास धारण किया जाता है उसे इंगिनीमरण कहते हैं । (३) और जिसमें स्वकृत और परकृत दोनों प्रकार के उपचार न हों उसे प्रायोपगमन कहते हैं । राजा महाबल ने प्रायोपगमन नाम का तीसरा संन्यास धारण किया था ।।२३४।। कठिन तपस्या करने वाले महाबल महाराज का शरीर तो कृश हो गया था परन्तु पञ्चपरमेष्ठियों का स्मरण करते रहने से परिणामों की विशुद्धि बढ़ गयी थी ।।२३५।। निरन्तर उपवास करने वाले उन महाबल के शरीर में शिथिलता अवश्य आ गयी थी परन्तु ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा में रंचमात्र भी शिथिलता नहीं आयी थी, सो ठीक है क्योंकि प्रतिज्ञा में शिथिलता नहीं करना ही महापुरुषों का व्रत हैं ।।२३६।। शरीर के रक्त, मांस आदि रसों का क्षय हो जाने से वह महाबल शरद् ऋतु के मेघों के समान अत्यन्त दुर्बल हो गया था । अथवा यों समझिए कि उस समय वह राजा देवों के समान रक्त, मांस आदि से रहित शरीर को धारणकर रहा था ।।२३७।। राजा महाबल ने मरण का प्रारम्भ करने वाले व्रत धारण किये हैं, यह देखकर उसके दोनों नेत्र मानो शोक से ही कहीं जा छिपे थे और पहले के हाव-भाव आदि विलासों से विरत हो गये थे ।।२३८।। यद्यपि उसके दोनों गालों के रक्त, मांस तथा चमड़ा आदि सब सूख गये थे तथापि उन्होंने अपनी अविनाशिनी कान्ति के द्वारा पहले की शोभा नहीं छोड़ी थी, वे उस समय भी पहले की ही भाँति सुन्दर थे ।।२३९।। समाधि ग्रहण के पहले उसके जो कन्धे अत्यन्त स्थूल तथा बाजूबन्द की रगड़ से अत्यन्त कठोर थे उस समय वे भी कठोरता को छोड़कर अतिशय कोमलता को प्राप्त हो गये थे ।।२४०।। उसका उदर कुछ भीतर की ओर झुक गया था और त्रिवली भी नष्ट हो गयी थी इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो हवा के न चलने से तरंगरहित सूखता हुआ तालाब ही हो ।।२४१।। जिस प्रकार अग्नि में तपाया हुआ सुवर्ण पाषाण अत्यन्त शुद्धि को धारण करता हुआ अधिक प्रकाशमान होने लगता है उसी प्रकार वह महाबल भी तपरूपी अग्नि से तप्त हो अत्यन्त शुद्धि को धारण करता हुआ अधिक प्रकाशमान होने लगता था ।।२४२।। राजा असह्य शरीर-सन्ताप को लीलामात्र में ही सहन कर लेता था तथा कभी किसी विपत्ति से पराजित नहीं होता था इसलिए उसके साथ युद्ध करते समय परीषह ही पराजय को प्राप्त हुए थे, परीषह उसे अपने कर्त्तव्य मार्ग से क्षत नहीं कर सके थे ।।२४३।। यद्यपि उसके शरीर में मात्र चमड़ा और हड्डी ही शेष रह गयी थी तथापि उसने अपनी समाधि के बल से अनेक परीषहों को जीत लिया था इसलिए उस समय वह यथार्थ में महाबल सिंह हुआ था ।।२४४।। उसने अपने मस्तक पर लोकोत्तम परमेष्ठी को तथा हृदय में अरहंत परमेष्ठी को विराजमान किया था और आचार्य, उपाध्याय तथा साधु इन तीन परमेष्ठियों के ध्यानरूपी टोप-कवच और अस्त्र धारण किये थे ।।२४५।। ध्यान के द्वारा उसके दोनों नेत्र मात्र परमात्मा को ही देखते थे, कान परम मन्त्र (णमोकार मन्त्र) को ही सुनते थे और जिह्वा उसी का पाठ करती थी ।।२४६।। वह राजा महाबल अपने मनरूपी गर्भगृह में निर्धूम दीपक के समान कर्ममल कलंक से रहित अर्हन्त परमेष्ठी को विराजमान कर ध्यानरूपी तेज के द्वारा मोह अथवा अज्ञानरूपी अन्धकार से रहित हो गया था ।।२४७।। इस प्रकार महाराज महाबल निरन्तर बाईस दिन तक सल्लेखना की विधि करते रहे । जब आयु का अन्तिम समय आया तब उन्होंने अपना मन विशेष रूप से पञ्चपरमेष्ठियों में लगाया । उसने हस्त कमल जोड़कर ललाट पर स्थापित किये और मन-ही-मन निश्चल रूप से नमस्कार मन्त्र का जाप करते हुए, म्यान से तलवार के समान शरीर से जीव को पृथक् चिन्तवन करते और अपने शुद्ध आत्मस्वरूप की भावना करते हुए, स्वयम्बुद्ध मंत्रि के समक्ष सुखपूर्वक प्राण छोड़े ।।२४८-२५०।। स्वयम्बुद्ध मन्त्री जिस प्रकार पहले अपनी मन्त्रशक्ति (विचारशक्ति) के द्वारा महाबल में बल (शक्ति अथवा सेना) सन्निहित करता रहता था, उसी प्रकार उस समय भी वह, मन्त्रशक्ति पञ्चनमस्कार मन्त्र के जाप के प्रभाव) के द्वारा उसमें आत्मबल सन्निहित करता रहा, उसका धैर्य नष्ट नहीं होने दिया ।।२५१।। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से महाराज महाबल की धर्म सहायता करने वाले स्वयम्बुद्ध मन्त्री ने अन्त तक अपने मन्त्रीपने का कार्य किया ।।२५२।। तदनन्तर वह महाबल का जीव शरीररूपी भार छोड़ देने के कारण मानो हलका होकर विशाल सुख-सामग्री से भरे हुए ऐशानस्वर्ग को प्राप्त हुआ । वहाँ वह श्रीप्रभ नाम के अतिशय सुन्दर विमान में उपपाद शय्या पर बड़ी ऋद्धि का धारक ललिताङ्ग नाम का उत्तम देव हुआ ।।२५३-२५४।। मेघरहित आकाश में श्वेत बादलोंसहित बिजली की तरह उपपाद शय्या पर शीघ्र ही उसका वैक्रियिक शरीर शोभायमान होने लगा ।।२५५।। वह देव अन्तर्मुहूर्त में ही नवयौवन से पूर्ण तथा सम्पूर्ण लक्षणों से सम्पन्न होकर उपपाद शय्या पर ऐसा सुशोभित होने लगा मानो सब लक्षणों से सहित कोई तरुण पुरुष सोकर उठा हो ।।२५६।। देदीप्यमान कुण्डल, केयूर, मुकुट और बाजूबन्द आदि आभूषण पहने हुए, माला से सहित और उत्तमवस्त्रों को धारण किये हुए ही वह अतिशय कान्तिमान् ललिताङ्ग नामक देव उत्पन्न हुआ ।।२५७।। उस समय टिमकाररहित नेत्रों से सहित उसका रूप निश्चल बैठी हुई दो मछलियों सहित सरोवर के जल की तरह शोभायमान हो रहा था ।।२५८।। अथवा उसका शरीर कल्पवृक्ष की शोभा धारणकर रहा था क्योंकि उसकी दोनों भुजाएँ उज्ज्वल शाखाओं के समान थी, अतिशय शोभायमान हाथों की हथेलियाँ कोमल पल्लवों के समान थीं और नेत्र भ्रमरों के समान थे ।।२५९।। अथवा ललिताङ्गदेव के रूप का और अधिक वर्णन करने से क्या लाभ है ? उसका वर्णन तो इतना ही पर्याप्त है कि वह योनि के बिना ही उत्पन्न हुआ था और अतिशय सुन्दर था ।।२६०।। उस समय स्वयं कल्पवृक्षों के द्वारा ऊपर से छोड़ी हुई पुष्पों की वर्षा हो रही थी और दुन्दुभि का गम्भीर शब्द दिशाओं को व्याप्त करता हुआ निरन्तर बढ़ रहा था ।।२६१।। जल की छोटी-छोटी बूँदों को बिखेरता और नन्दन वन के हिलते हुए कल्पवृक्षों से पुष्पपराग ग्रहण करता हुआ अतिशय सुहावना पवन धीरे-धीरे बह रहा था ।।२६२।। तदनन्तर सब ओर से नमस्कार करते हुए करोड़ों देवों के शरीर की प्रभा से व्याप्त दिशाओं में दृष्टि घुमाकर ललिताङ्गदेव ने देखा कि यह परम ऐश्वर्य क्या है ? मैं कौन हूँ ? और ये सब कौन हैं जो मुझे दूर-दूर से आकर नमस्कार कर रहे हैं । ललिताङ्गदेव यह सब देखकर क्षणभर के लिए आश्चर्य से चकित हो गया ।।२६३-२६४।। मैं यहाँ कहाँ आ गया कहाँ से आया आज मेरा मन प्रसन्न क्यों हो रहा है ? यह शय्यातल किसका है ? और यह मनोहर महान् आश्रम कौनसा है इस प्रकार चिन्तवन कर ही रहा था कि उसे उसी क्षण अवधिज्ञान प्रकट हो गया । उस अवधिज्ञान के द्वारा ललिताङ्गदेव ने स्वयम्बुद्ध मन्त्री आदि के सब समाचार जान लिये ।।२६५-२६६।। यह हमारे तप का मनोहर फल है, यह अतिशय कान्तिमान् स्वर्ग है, ये प्रणाम करते हुए तथा शरीर का प्रकाश सब ओर फैलाते हुए देव हैं, यह कल्पवृक्षों से घिरा हुआ शोभायमान विमान है ये मनोहर शब्द करती तथा रुनझुन शब्द करने वाले मणिमय नूपुर पहने हुई देवियाँ है, इधर यह अप्सराओं का समूह मन्द-मन्द हँसता हुआ नृत्य कर रहा है, इधर मनोहर और गम्भीर गान हो रहा है, और इधर यह मृदंग बज रहा है । इस प्रकार भवप्रत्यय अवधिज्ञान से पूर्वोक्त सभी बातों का निश्चय कर वह ललिताङ्गदेव अनेक रत्नों की किरणों से शोभायमान शय्या पर सुख से बैठा ही था कि नमस्कार करते हुए अनेक देव उसके पास आये । वे देव ऊँचे स्वर से कह रहे थे कि हे स्वामिन् आपकी जय हो । हे विजयशील, आप समृद्धिमान् हैं । हे नेत्रों को आनन्द देने वाले, महाकान्तिमान् आप सदा बढ़ते रहें—आपके बलविद्या, ऋद्धि आदि की सदा वृद्धि होती रहे ।।२६७-२७१।। तत्पश्चात् अपने-अपने नियोग से प्रेरित हुए अनेक देव विनयसहित उसके पास आये और मस्तक झुकाकर इस प्रकार कहने लगे कि हे नाथ स्नान की सामग्री तैयार है इसलिए सबसे पहले मङ्गलमय स्नान कीजिए फिर पुण्य को बढ़ाने वाला जिनेन्द्रदेव की पूजा कीजिए । तदनन्तर आपके भाग्य से प्राप्त हुई तथा अपने-अपने गुटों (छोटी टुकड़ियों) के साथ जहाँ-तहाँ (सब ओर से) आने वाली देवों की सब सेना का अवलोकन कीजिए । इधर नाट्यशाला में आकर, लीलासहित भौंह नचाकर नृत्य करती हुई, दर्शनीय सुन्दर देव नर्तकियों को देखिए । हे देव, आज मनोहर वेषभूषा से युक्त देवियों का सम्मान कीजिए क्योंकि निश्चय से देवपर्याय की प्राप्ति का इतना ही तो फल है । इस प्रकार कार्यकुशल ललिताङ्गदेव ने उन देवों के कहे अनुसार सभी कार्य किये सो ठीक ही है क्योंकि अपने नियोगों का उल्लंघन नहीं करना ही महापुरुषों का श्रेष्ठ भूषण है ।।२७२-२७७।। वह ललिताङ्गदेव तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्तिमान था, सात हाथ ऊँचे शरीर का धारक था, साथ-साथ उत्पन्न हुए वस्त्र, आभूषण और माला आदि से विभूषित था, सुगन्धित स्वासोच्छ्वास से सहित था, अनेक लक्षणों से उज्ज्वल था और अणिमा, महिमा आदि गुणों से युक्त था । ऐसा वह ललिताङ्गदेव निरन्तर दिव्य भोगों का अनुभव करने लगा ।।२७८-२७९।। वह एक हजार वर्ष बाद मानसिक आहार लेता था, एक पक्ष में श्वासोच्छ्वास लेता था तथा स्त्रीसंभोग शरीर द्वारा करता था ।।२८०।। वह शरीर की कान्ति के समान कभी नहीं मुरझाने वाली उज्ज्वल माला तथा शरत्काल के समान निर्मल दिव्य अम्बर (वस्त्र, पक्ष में आकाश) धारण करता था ।।२८१।। उस देव के चार हजार देविया थीं तथा सुन्दर लावण्य और विलास-चेष्टाओं से सहित चार महादेवियाँ थीं ।।२८२।। उन चारों महादेवियों में पहली स्वयंप्रभा, दूसरी कनकप्रभा, तीसरी कनकलता और चौथी विद्युल्लता थी ।।२८३।। इन सुन्दर स्त्रियों के साथ पुण्य के उदय से प्राप्त होने वाले भोग को निरन्तर भोगते हुए इस ललिताङ्गदेव का बहुत काल बीत गया ।।२८४।। उसके आयुरूपी समुद्र में अनेक देवियाँ अपनी-अपनी आयु की स्थिति पूर्ण हो जाने से चञ्चल तरङ्गों के समान विलीन हो चुकी थीं ।।२८५। जब उसकी आयु पृथक्त्वपल्य के बराबर अवशिष्ट रह गयी तब उसके अपने पुण्य के उदय से एक स्वयंप्रभा नाम को प्रिय पत्नी प्राप्त हुई ।।२८६।। वेष-भूषा से सुसज्जित तथा कान्तियुक्त शरीर को धारण करने वाली वह स्वयंप्रभा पति के समीप ऐसी सुशोभित होती थी मानो रूपवती स्वर्ग की लक्ष्मी ही हो ।।२८७।। जिस प्रकार आम की नवीन मंजरी भ्रमर को अतिशय प्यारी होती है उसी प्रकार वह स्वयंप्रभा ललिताङ्गदेव को अतिशय प्यारी थी ।।२८८।। वह देव स्वयंप्रभा का मुख देखकर तथा उसके शरीर का स्पर्श कर हस्तिनी में आसक्त रहने वाले हस्ती के समान चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहता था ।।२८९।। वह देव उस स्वयंप्रभा के साथ कभी मनोहर चन्द्रकान्त शिलाओं से युक्त तथा भ्रमर, कोयल आदि पक्षियों द्वारा वाचालित नन्दन आदि वनों से सहित मेरुपर्वत पर, कभी नील निषध आदि बड़े-बड़े पर्वतों पर, कभी विजयार्ध के शिखरों पर, कभी कुण्डलगिरि पर, कभी रुचकगिरि पर, कभी मानुषोत्तर पर्वत पर, कभी नन्दीश्वर महाद्वीप में, कभी अन्य अनेक द्वीपसमुद्रों में और कभी भोगभूमि आदि प्रदेशों में दिव्यसुख भोगता हुआ निवास करता था ।।२९०-२९२।। इस प्रकार बड़ी-बड़ी ऋद्धियों का धारक और अद्भुत शोभा से युक्त वह ललिताङ्गदेव, अपने किये हुए पुण्य कर्म के उदय से, मन्द-मन्द मुसकान, हास्य और विलास आदि के द्वारा स्पष्ट चेष्टा करने वाली अनेक देवाङ्गनाओं के साथ कुछ अधिक एक सागर तक अपनी इच्छानुसार उदार और उत्कृष्ट दिव्यभोग भोगता रहा ।।२९३।। उस बुद्धिमान् ललिताङ्गदेव ने पूर्वभव में अत्यन्त तीव्र असह्य सन्ताप को देनेवाले तपश्चरणों के द्वारा अपने शरीर को निष्कलङ्क किया था इसलिए ही उसने इस भव में मनोहर कान्ति की धारक देवियों के साथ सुख भोगे अर्थात् सुख का कारण तपश्चरण वगैरह से उत्पन्न हुआ धर्म है अत: सुख चाहने वालों को हमेशा धर्म का ही उपार्जन करना चाहिए ।।२९४।। हे आर्य पुरुषो, यदि अतिशय लक्ष्मी प्राप्त करना चाहते हो तो भोगों की तृष्णा छोड़कर तप में तृष्णा करो तथा निष्पाप श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा करो और उन्हीं के वचनों का श्रद्धान करो, अन्य मिथ्यादृष्टि कुकवियों के कहे हुए मिथ्यामतों का अध्ययन मत करो ।।२९५।। इस प्रकार जो प्रशंसनीय पुरुषार्थों का देने वाला है और करमरूपी कुटिल वन को नष्ट करने के लिए तीक्ष्ण कुठार के समान है ऐसे इस जैनधर्म की सेवा के लिए हे सुखाभिलाषी पण्डितजनो, सदा प्रयत्न करो और दुर्बुद्धि को नष्ट करने वाले जैनमत में आस्था—श्रद्धा करो ।।२९६।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्य विरचित त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रह में ललिताङ्ग स्वर्गभोग वर्णन नाम का पञ्चम पर्व पूर्ण हुआ ।।५।।