आचाम्ल
From जैनकोष
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 251/473 छट्ठट्ठमदसमदुबालसेहिं भत्तेहिं अदिविकट्ठेहिं। मिदलहुगं आहारं करेदि आयंविलं बहुसो ॥251॥
= दो दिनका उपवास, तीन दिनका उपवास, चार दिनका उपवास, पाँच दिनका उपवास, ऐसे उत्कृष्ट उपवास होनेके अनन्तर मित और हलका ऐसा (आचाम्ल) काँजी-भोजन ही क्षपक बहुशः करता है।
वसुनन्दि श्रावकाचार गाथा 2 5 की टिप्पणीमें अभिधान राजेन्द्रकोश “आयबिलं-अम्लं चतुर्थों रसः, स एव प्रायेण व्यञ्जने यत्र भोजने ओदन-कुल्माषसक्तुप्रभृतिके तदाचारम्लम्। आयंविलमपि तिविहं उक्किट्ठजहण्ण-मज्झिमदएहिं। तिविहं ज विउलपूवाइ पकप्पए तत्थ ॥102॥ मिय-सिंधवसंठि मिरीमेही सोवच्चलं च विउलवणे। हिंगुसुगंधिसु पाए पकप्पए साइयं वत्थु ॥103॥
सागार धर्मामृत टीका / अधिकार 5/35 काँजी सहित केवल भातके आहरको आचाम्लाहार कहते हैं।
• आचारम्लाहारकी महत्ता - देखें सल्लेखवा - 4.12।