मोक्षपाहुड गाथा 10
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि ऐसी ही मान्यता से पर मनुष्यादि में मोह की प्रवृत्ति होती है -
सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं ।
सुयदाराईविसए मणुयाणं वड्ढए मोहो ।।१०।।
स्वपराध्यवसायेन देहेषु च अविदितार्थात्मानम् ।
सुतदारादिविषये मनुजानां वर्द्धते मोह: ।।१०।।
निजदेह को निज-आतमा परदेह को पर-आतमा ।
ही जानकर ये मूढ़ सुत-दारादि में मोहित रहें ।।१०।।
अर्थ - इसप्रकार देह में स्व-पर के अध्यवसाय (निश्चय) के द्वारा मनुष्यों के सुत दारादिक जीवों में मोह की प्रवृत्ति करते हैं, कैसे हैं मनुष्य, जिनने पदार्थ का स्वरूप (अर्थात् आत्मा) नहीं जाना है - ऐसे हैं । दूसरा अर्थ (इसप्रकार देह में स्व-पर के अध्यवसाय (निश्चय) के द्वारा जिन मनुष्यों ने पदार्थ के स्वरूप को नहीं जाना है उनके सुत दारादिक जीवों में मोह की प्रवृत्ति होती है ।) (भाषा परिवर्तनकार ने यह अर्थ लिखा है)
भावार्थ - जिन मनुष्यों ने जीव-अजीव पदार्थ का स्वरूप यथार्थ नहीं जाना, उनके देह में स्वपराध्यवसाय है । अपनी देह को अपनी आत्मा जानते हैं और पर की देह को पर की आत्मा जानते हैं, उनके पुत्र-स्त्री आदि कुटुम्बियों में मोह (ममत्व) होता है । जब ये जीव-अजीव के स्वरूप को जानें तब देह को अजीव मानें, आत्मा को अमूर्तिक चैतन्य जानें, अपनी आत्मा को अपनी मानें और पर की आत्मा को पर मानें, तब पर में ममत्व नहीं होता है । इसलिए जीवादिक पदार्थो का स्वरूप अच्छी तरह जानकर मोह नहीं करना - यह बतलाया है ।।१०।।