मोक्षपाहुड गाथा 11
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि मोहकर्म के उदय से (उदय में युक्त होने से) मिथ्याज्ञान और मिथ्याभाव होते हैं, उससे आगामी भव में भी यह मनुष्य देह को चाहता है -
मिच्छाणाणेसु रओ मिच्छाभावेण भाविओ संतो ।
मोहोदएण पुणरवि अंगं १सं मण्णए मणुओ ।।११।।
मिथ्याज्ञानेषु रत: मिथ्याभावेन भावित: सन् ।
मोहोदयेन पुनरपि अंगं स्वं मन्यते मनुज: ।।११।।
कुज्ञान में रत और मिथ्याभाव से भावित श्रमण ।
मद-मोह से आच्छन्न भव-भव देह को ही चाहते ।।११ ।।
अर्थ - यह मनुष्य मोहकर्म के उदय से (उदय के वश होकर) मिथ्याज्ञान के द्वारा मिथ्याभाव से भाया हुआ फिर आगामी जन्म में इस अंग (देह) को अच्छा समझकर चाहता है ।
भावार्थ - मोहकर्म की प्रकृति मिथ्यात्व के उदय से (उदय के वश होने से) ज्ञान भी मिथ्या होता है, परद्रव्य को अपना जानता है और उस मिथ्यात्व ही के द्वारा मिथ्या श्रद्धान होता है, उससे निरन्तर परद्रव्य में यह भावना रहती है कि यह मुझे सदा प्राप्त होवे, इससे यह प्राणी आगामी देह को भला जानकर चाहता है ।।११।।