मोक्षपाहुड गाथा 44
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि ध्यानी मुनि ऐसा बनकर परमात्मा का ध्यान करता है -
तिहि तिण्णि धरवि णिच्चं तियरहिओ तह तिएण परियरिओ ।
दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई ।।४४।।
त्रिभि: त्रीन् धृत्वा नित्यं त्रिकरहित: तथा त्रिकेण परिकरित: ।
द्विदोषविप्रमुक्त: परमात्मानं ध्यायते योगी ।।४४।।
रुष-राग का परिहार कर त्रययोग से त्रयकाल में ।
त्रयशल्य विरहित रतनत्रय धर योगि ध्यावे आत्मा ।।४४।।
अर्थ - `त्रिभि:' मन वचन काय से `त्रीन्' वर्षा, शीत, उष्ण तीन कालयोगों को धारण कर `त्रिकरहित:' माया, मिथ्या, निदान तीन शल्यों से रहित होकर `त्रिकेण परिकरित:' दर्शन, ज्ञान, चारित्र से मंडित होकर और `द्विदोषविप्रमुक्त:' दो दोष अर्थात् राग-द्वेष इनसे रहित होता हुआ योगी ध्यानी मुनि है वह परमात्मा अर्थात् सर्वकर्म रहित शुद्ध परमात्मा उनका ध्यान करता है ।
भावार्थ - मन वचन काय से तीन काल योग धारण कर परमात्मा का ध्यान करे इसप्रकार कष्ट में दृढ़ रहे तब ज्ञात होता है कि इसके ध्यान की सिद्धि है, कष्ट आने पर चलायमान हो जाय तब ध्यान की सिद्धि कैसी ? चित्त में किसी भी प्रकार की शल्य रहने से चित्त एकाग्र नहीं होता है, तब ध्यान कैसे हो ? इसलिए शल्य रहित कहा, श्रद्धान, ज्ञान, आचरण यथार्थ न हो तब ध्यान कैसा? इसलिए दर्शन, ज्ञान, चारित्र मंडित कहा और राग-द्वेष-इष्ट-अनिष्ट बुद्धि रहे तब ध्यान कैसे हो ? इस तरह परमात्मा का ध्यान करे यह तात्पर्य है ।।४४।।