भव
From जैनकोष
- भव
स.सि./१/२१/१२५/६ आयुर्नामकर्मोदयनिमित्त आत्मनः पर्यायो भवः। = आयुनामकर्म के उदय का निमित्त पाकर जो जीव की पर्याय होती है उसे भव कहते हैं। (रा.वा./१/२१७९/६)।
ध.१०/४,२,४,८/३५/५ उत्पत्तिवारा भवाः। = उत्पत्ति के वारों का नाम भव है।
ध.१५/५/५/१४ उप्पण्णवढमयप्पहुडि जाव चरिमसमओ त्ति जो अवत्थाविसेसो सो भवो णाम। = उत्पन्न होने के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक जो विशेष अवस्था रहती है, उसे भव कहते हैं।
भ.आ./वि./२५/१८ पर उद्धृत–देहो भवोत्ति उवुच्चदि ...। = देह को भव कहते हैं। - क्षुल्लक भव का लक्षण
ध.१४/५,६,६४६/५०४/२ आउअबंधे संते जो उवरि विस्समणकालो सव्वजहण्णो तस्स खुद्दा भवग्गहणं ति सण्णा। सो त्तो उवरि होदि।... असंखेयद्धस्सुवरि खुद्धाभवगहणं त्ति वुत्ते। = आयु बन्ध के होने पर जो सबसे जघन्य विश्रमण काल है उसकी क्षुल्लक भव ग्रहण संज्ञा है। वह आयु बन्धकाल के ऊपर होता है। ... असंक्षेपाद्धाके ऊपर (मृत्युपर्यन्त) क्षुल्लक भव ग्रहण है। - अन्य सम्बन्धित विषय
- सम्यग्दृष्टि को भव धारण की सीमा– देखें - सम्यग्दर्शन / I / ५ ।
- श्रावक को भव धारण की सीमा– देखें - श्रावक / २ ।
- एक अन्तर्मुहूर्त में सम्भव क्षुद्रभवों का प्रमाण– देखें - आयु / ७ ।
- नरक गति में पुनःपुनः भव धारण की सीमा– देखें - जन्म / ६ / १० ।
- लब्ध्यपर्याप्तकों में पुनः पुनः भव धारण की सीमा– देखें - आयु / ७ ।
- सम्यग्दृष्टि को भव धारण की सीमा– देखें - सम्यग्दर्शन / I / ५ ।