सचित्त
From जैनकोष
जीव सहित पदार्थों को सचित्त कहते हैं। सूखने से, अग्नि पर पकने से, कटने छटने से अथवा नमक आदि पदार्थों से संसक्त होने पर वनस्पति, जल आदि पदार्थ अचित्त हो जाते हैं। व्रती लोग सचित्त पदार्थों का सेवन नहीं करते।
१. सचित्त सामान्य का लक्षण
स.सि./२/३२/१८७/१० आत्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम् । सह चित्तेन वर्तत इति सचित्त:।
स.सि./७/३५/३७१/६ सह चित्तेन वर्तते इति सचित्तं चेतनावद् द्रव्यम् । = १. आत्मा के चैतन्य विशेषरूप परिणाम को चित्त कहते हैं। जो उसके साथ रहता है वह सचित्त कहलाता है। (रा.वा./२/३२/१/१४१/२२) २. जो चित्त सहित है वह सचित्त कहलाता है। (रा.वा./७/३५/१/५५८)।
२. सचित्त त्याग प्रतिमा का लक्षण
र.क.श्रा./१४१ मूलफलशाकशाखाकरीरकंदप्रसूनबीजानि। नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्ति:। = जो कच्चे मूल, फल, शाक, शाखा, करीर, जमीकन्द, पुष्प और बीज नहीं खाता है वह दया की मूर्ति सचित्त त्याग प्रतिमाधारी है।१४१। (चा.सा./३८/१); (का.अ./मू./३७९-३८०); ला.सं./७/१६)।
वसु.श्रा./२९५ जं वज्जिज्जइ हरियं तुय-पत्त-पवाल-कंदफलबीयं। अप्पासुगं च सलिलं सचित्तणिव्वित्ति तं ठाणं। =जहाँ पर हरित, त्वक् (छाल), पत्र, प्रवाल, कन्द, फल, बीज और अप्रासुक जल त्याग किया जाता है वह सचित्त विनिवृत्तिवाला पाँचवाँ प्रतिमा स्थान है। (गुण.श्रा./१७८); (द्र.सं./टी./४५/१९५/८)।
सा.ध./७/८-१० हरिताङ्कुरबीजस्य लवणाद्यप्रासुकं त्यजन् । जाग्रत्कृपश्चतुर्निष्ठ:, सञ्चित्तविरत: स्मृत:।८। पादेनापि स्मृशन्नर्थ-वशाद्योऽति ऋतीयते। हरितान्याश्रितानन्त-निगोतानि स भोक्ष्यते।९। अहो जिनोक्ति निर्णीतिरहो अक्षजिति: सताम् । नालक्ष्यजन्त्वपि हरित् प्यासन्त्येतेऽसुक्षयेऽपि यत् ।१०। =प्रथम चार प्रतिमाओं का पालक तथा प्रासुक नहीं किये गये हरे अंकुर, हरे बीज, जल, नमकादि पदार्थों को नहीं खाने वाला दयामूर्ति श्रावक सचित्त विरत माना गया है।८। जो प्रयोजनवश पैर से भी छूता हुआ अपनी निन्दा करता है वह श्रावक मिले हुए हैं अनन्तानन्त निगोदिया जीव जिसमें ऐसी वनस्पतियों को कैसे खायेगा।९। सज्जनों का जिनागम सम्बन्धी निर्णय, इन्द्रिय विषय आश्चर्यजनक है, क्योंकि वैसे सज्जन दिखाई नहीं देते जो, प्राणों का क्षय होने पर भी हरी वनस्पति को नहीं खाते।१०।
३. सचित्तापिधान आदि के लक्षण
स.सि./७/३५-३६/३७१/६ सचित्तं चेतनावद् द्रव्यम् । तदुपश्लिष्ट: संबन्ध:। तद्व्यतिकीर्ण: संमिश्र:।३५। सचित्ते पद्मपत्रादौ निक्षेप: सचित्तनिक्षेप:। अपिधानमावरणम् । सचित्तेनैव सबध्यते सचित्तापिधानमिति।३६। =सचित्त से चेतना द्रव्य लिया जाता है। इससे सम्बन्ध को प्राप्त हुआ द्रव्य सम्बन्धाहार है। और इससे मिश्रित द्रव्य सम्मिश्र है।३५। (रा.वा./७/३५/२-३/५५८/४)। सचित्त कमल पत्र आदि में रखना सचित्तनिक्षेप है। अपिधान का अर्थ ढाँकना है। इस शब्द को भी सचित्त शब्द से जोड़ लेना चाहि जिससे सचित्तापिधान का सचित्त कमलपत्र आदि से ढाँकना यह अर्थ फलित होता है। (रा.वा./७/३६/१-२/५५८/२०)।
४. भोगोपभोग परिमाण व्रत व सचित्त त्याग प्रतिमा में अन्तर
चा.सा./३८/१ अस्योपभोगपरिभोगपरिमाणशीलव्रतातिचारो व्रतं भवतीति। =उपभोग परिभोग परिमाण शील के जो अतिचार हैं उनका त्याग ही इस प्रतिमा में किया जाता है।
सा.ध./७/११ सचित्तभोजनं यत्प्राङ् मलत्वेन जिहासितम् । व्रतयत्यङ्गिपञ्चत्व-चकितस्तच्च पञ्चम:।११। =व्रती श्रावक ने सचित्त भोजन पहले भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार रूप से छोड़ा था उस सचित्त भोजन को प्राणियों के मरण से भयभीत पंचम प्रतिमाधारी व्रत रूप से छोड़ता है।११।
ला.सं./७/१६ इत: पूर्वं कदाचिद्वै सचित्तं वस्तु भक्षयेत। इत: परं स नाश्नुयात्सचित्तं तज्जलाद्यपि।१६। =पंचम प्रतिमा से पूर्व कभी-कभी सचित्त पदार्थों का भक्षण कर लेता था। परन्तु अब सचित्त पदार्थों का भक्षण नहीं करता। यहाँ तक कि सचित्त जल का भी प्रयोग नहीं करता।१६।
५. वनस्पति के सर्व भेद अचित्त अवस्था में ग्राह्य हैं
देखें - भक्ष्याभक्ष्य / ४ / ४ [जिमिकंद आदि को सचित्त रूप में खाना संसार का कारण है]
देखें - सचित्त / २ [सचित्त विरत श्रावक सचित्त वनस्पति नहीं खाता]
देखें - सचित्त / ६ [आग पर पके व विदारे कंदमूल आदि प्रासुक हैं]।
मू.आ./८२५-८२६ फलकंदमूलवीयं अणग्गिपवकं तु आमयं किंचि। णच्चा अणेसणीयं णवि य पडिच्छंति ते धीरा।८२५। जं हवदि अणिव्वीयं णिवट्टिमं फासुयं कयं चेव। णाऊण एसणीयं तं भिक्खं मुणिपडिच्छंति।८२६। =अग्निकर नहीं पके, ऐसे कंद, मूल, बीज, तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ उसको अभक्ष्य जानकर वे धीर वीर मुनि भक्षण की इच्छा नहीं करते।८२५। जो निर्बीज हो और प्रासुक किया गया है ऐसे आहार को खाने योग्य समझ मुनिराज उसके लेने की इच्छा करते हैं।८२६।
ला.सं./२/१०४ विवेकस्यावकाशोऽस्ति देशतो विरतावपि। आदेयं प्रासुकं योग्यं नादेयं तद्विपर्ययम् ।१०४। =देश त्याग में विवेक की बड़ी आवश्यकता है। निर्जीव तथा योग्य पदार्थों का ग्रहण करना चाहिए। सचित्त तथा अयोग्य ऐसे पदार्थों को ग्रहण नहीं करना चाहिए।१०४।
६. पदार्थों को प्रासुक करने की विधि
मू.आ./८२४ सुक्कं पक्कं तत्तं अंबिल लवणेण मिस्सयं दव्वं। जं जंतेण य छिन्नं तं सव्वं पासुयं भणियं।८२४। =सूखी हुई, पकी हुई, तपायी हुई, खटाई या नमक आदि से मिश्रित वस्तु तथा किसी यंत्र अर्थात् चाकू आदि से छिन्न-भिन्न की गयी सर्व ही वस्तुओं को प्रासुक कहा जाता है।
गो.जी./जी.प्र./२२४/४८३/१४ शुष्कपक्वध्वस्ताम्ललवणसंमिश्रदग्धादि द्रव्यं प्रासुकं...। =सूखे हुए, पके हुए, ध्वस्त, खटाई या नमक आदि से मिश्रित अथवा जले हुए द्रव्य प्रासुक हैं।
७. अन्य सम्बन्धित विषय
- सचित्त त्याग प्रतिमा व आरम्भ त्याग प्रतिमा में अन्तर। - देखें - आरम्भ।
- सूखे हुए भी उदम्बर फल निषिद्ध हैं। - देखें - भक्ष्याभक्ष्य।
- साधु के विहार के लिए अचित्त मार्ग। - देखें - विहार / १ / ७ ।
- मांस को प्रासुक किया जाना सम्भव नहीं। - देखें - मांस / २ ।
- अनन्त कायिक को प्रासुक करने में फल कम है और हिंसा अधिक। - देखें - भक्ष्याभक्ष्य / ४ / ३ ।
- वही जीव या अन्य कोई भी जीव उसी बीज के योनि स्थान में जन्म धारण कर सकता है। - देखें - जन्म / २ ।