मोक्षपाहुड गाथा 81
From जैनकोष
आगे फिर मोक्षमार्गी की प्रवृत्ति कहते हैं -
उद्धद्धमज्झलोये केई मज्झं ण अहयमेगागी ।
इय भावणाए जोई पावंति हु सासयं सोक्खं ।।८१।।
ऊर्ध्वाधोध्यलोके केचित् मम न अहममेकाकी ।
इति भावनया योगिन: प्राप्नुवंति स्फुटं शाश्वतं
सौ ख्य म् । । ८ १ । ।
त्रैलोक में मेरा न कोई मैं अकेला आतमा ।
इस भावना से योगिजन पाते सदा सुख शास्वता ।।८१।।
अर्थ - मुनि ऐसी भावना करे - ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक इन तीनों लोकों में मेरा कोई भी नहीं है, मैं एकाकी आत्मा हूँ, ऐसी भावना से योगी मुनि प्रकटरूप से शाश्वत सुख को प्राप्त करता है ।
भावार्थ - मुनि ऐसी भावना करे कि त्रिलोक में जीव एकाकी है इसका संबंधी दूसरा कोई नहीं है, यह परमार्थरूप एकत्व भावना है । जिस मुनि के ऐसी भावना निरन्तर रहती है वही मोक्षमार्गी है, जो भेष लेकर भी लौकिकजनों से लाल पाल रखता है, वह मोक्षमार्गी नहीं है ।।८१।।