मोक्षपाहुड गाथा 84
From जैनकोष
आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करते हुए कहते हैं -
पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदंसणसमग्गो ।
जो झायदि सो जोई पावहरो हवदि णिद्दंदो ।।८४।।
पुरुषाकार आत्मा योगी वरज्ञानदर्शनसमग्र: ।
य: ध्यायति स: योगी पापहर: भवति निर्द्वन्द: ।।८४।।
ज्ञानदर्शनमय अवस्थित पुरुष के आकार में ।
ध्याते सदा जो योगि वे ही पापहर निर्द्वन्द हैं ।।८४।।
अर्थ - यह आत्मा ध्यान के योग्य कैसा है ? पुरुषाकार है, योगी है, जिसके मन, वचन, काय के योगों का निरोध है, सर्वांग सुनिश्चल है और वर अर्थात् श्रेष्ठ सम्यक्रूप ज्ञान तथा दर्शन से समग्र है, परिपूर्ण है, जिसके केवलज्ञान दर्शन प्राप्त हैं, इसप्रकार आत्मा का जो योगी ध्यानी मुनि ध्यान करता है वह मुनि पाप को हरनेवाला है और निर्द्वन्द है-रागद्वेष आदि विकल्पों से रहित है ।
भावार्थ - जो अरहंतरूप शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है उसके पूर्व कर्म का नाश होता है और वर्तमान में रागद्वेषरहित होता है तब आगामी कर्म को नहीं बांधता है ।।८४।।