मोक्षपाहुड गाथा 87
From जैनकोष
आगे सम्यक्त्व के ध्यान ही की महिमा कहते हैं -
सम्मत्तं जो झायइ सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो ।
सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माणि ।।८७।।
सम्यकत्वं य: ध्यायति सम्यग्दृष्टि: भवति स: जीव: ।
सम्यक्त्वपरिणत: पुन: क्षपयति दुष्टाष्टकर्माणि ।।८७।।
अरे सम्यग्दृष्टि है सम्यक्त्व का ध्याता गृही ।
दुष्टाष्ट कर्मो को दहे सम्यक्त्व परिणत जीव ही ।।८७।।
अर्थ - जो श्रावक सम्यक्त्व का ध्यान करता है वह जीव सम्यग्दृष्टि है और सम्यक्त्वरूप परिणमता हुआ दुष्ट आठ कर्मो का क्षय करता है ।
भावार्थ - सम्यक्त्व का ध्यान इसप्रकार है - यदि पहिले सम्यक्त्व न हुआ हो तो भी इसका स्वरूप जानकर इसका ध्यान करे तो सम्यग्दृष्टि हो जाता है । सम्यक्त्व होने पर इसका परिणाम ऐसा है कि संसार के कारण जो दुष्ट अष्ट कर्म उनका क्षय होता है, सम्यक्त्व के होते ही कर्मो की गुणश्रेणी निर्जरा होने लग जाती है, अनुक्रम से मुनि होने पर चारित्र और शुक्लध्यान इसके सहकारी हो जाते हैं, तब सब कर्मो का नाश हो जाता है ।।८७।।