मोक्षपाहुड गाथा 14
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो स्वद्रव्य में रत है, वह सम्यग्दृष्टि होता है और कर्मो का नाश करता है-
सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण ।
सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ २दुट्ठट्ठकम्माइं ।।१४।।
स्वद्रव्यरत: श्रमण: सम्यग्दृष्टि भवति नियमेन ।
सम्यक्त्वपरिणत: पुन: क्षपयति दुष्टाष्टकमा र् ि ण । । १ ४ । ।
नियम से निज द्रव्य में रत श्रमण सम्यकवंत हैं ।
सम्यक्त्व-परिणत श्रमण ही क्षय करें करमानन्त हैं ।।१४।।
अर्थ - जो मुनि स्वद्रव्य अर्थात् अपनी आत्मा में रत है, रुचि सहित है, वह नियम से सम्यग्दृष्टि है और वह ही सम्यक्त्व भावरूप परिणमन करता हुआ दुष्ट आठ कर्मो का क्षय-नाश करता है ।
भावार्थ - यह भी कर्म के नाश करने का कारण संक्षेप कथन है । जो अपने स्वरूप की श्रद्धा, रुचि, प्रतीति से आचरण से युक्त है वह नियम से सम्यग्दृष्टि है, इस सम्यक्त्वभाव से परिणमन करता हुआ मुनि आठ कर्मो का नाश करके निर्वाण को प्राप्त करता है ।।१४।।