परिशिष्ट १—(आगम विचार)
From जैनकोष
- कर्म प्रकृति
- श्रुतज्ञान के ‘दृष्टिप्रवाद’ नामक बारहवें अंग के अन्तर्गत ‘अग्रायणी’ नामक द्वितीय पूर्व है। उसके पाँचवें वस्तु अधिकार से सम्बद्ध चतुर्थ प्राभृत का नाम ‘महाकर्म प्रकृति’ है (देखें - श्रुतज्ञान III/१)। आचार्य परम्परा द्वारा इसका ही कोई अंश आचार्य गुणधर तथा धरसेन को प्राप्त था। आ०धरसेन से इसी का अध्ययन करके आ०भूतबली ने ‘षट्खण्डागम’ की रचना की थी (देखें - आगे षट्खण्डागम )।
- इसी प्राभृत (कर्म प्रकृति) के उच्छिन्न अर्थ की रक्षा करने के लिये श्वेताम्बराचार्य शिवशर्म सूरि (वि०५००) ने ‘कर्म प्रकृति’ के नाम से ही एक दूसरे ग्रन्थ की रचना की थी, जिसका अपर नाम ‘कर्म प्रकृति संग्रहिणी’ है।२९३। इस ग्रन्थ में कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व आदि दश करणों का विवेचन किया गया है।२९५। इसकी अनेकों गाथायें षट्खण्डागम तथा कषाय पाहुड़ की टीका धवला तथा जयधवलायें और यतिवृषभाचार्य के चूर्णिसूत्रों में पार्इ जाती हैं।३०५। आ०मलयगिरि कृत संस्कृत टीका के अतिरिक्त इस पर एक प्राचीन प्राकृत चूर्णि भी उपलब्ध है।२९३। (जै०/१/पृ०)।
- श्रुतज्ञान के ‘दृष्टिप्रवाद’ नामक बारहवें अंग के अन्तर्गत ‘अग्रायणी’ नामक द्वितीय पूर्व है। उसके पाँचवें वस्तु अधिकार से सम्बद्ध चतुर्थ प्राभृत का नाम ‘महाकर्म प्रकृति’ है (देखें - श्रुतज्ञान III/१)। आचार्य परम्परा द्वारा इसका ही कोई अंश आचार्य गुणधर तथा धरसेन को प्राप्त था। आ०धरसेन से इसी का अध्ययन करके आ०भूतबली ने ‘षट्खण्डागम’ की रचना की थी (देखें - आगे षट्खण्डागम )।
- कर्मस्तव
५५ प्राकृत गाथाओं वाला यह ग्रन्थ कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व की विवेचना करता है। दिगम्बर पंचसंग्रह (वि०श०९) के ‘कर्मस्तव’ नामक तृतीय अधिकार में इसकी ५३ गाथाओं का ज्यों का त्यों ग्रहण कर लिया गया है।३२२। दूसरी ओर विशेषावश्यक भाष्य (वि०६५०) में इसका नामोल्लेख पाया जाता है। इसका रचना काल (वि०श०७-९) माना जा सकता है।३२५। इस ग्रन्थ पर २४ तथा ३२ गाथा वाले दो भाष्य उपलब्ध हैं, जिनके रचयिता के विषय में कुछ ज्ञात नहीं है। तीसरी एक संस्कृत वृत्ति है जो गोविन्दाचार्य कृत है।४३२। (जै०/१/पृष्ठ संख्या)।
- कषायपाहुड़
साक्षात् भगवान् महावीर से आगत द्वादशांग श्रुतज्ञान के अन्तर्गत होने से तथा सूत्रात्मक शैली में निबद्ध होने से दिगम्बर आम्नाय में यह ग्रन्थ आगम अथवा सूत्र माना जाता है। (ज०ध०/१/पृ.१५३-१५४) में आ०वीरसेन स्वामी ने इस विषय में विस्तृत चर्चा की है। चौदह पूर्वों में से पंचम पूर्व के दसवें वस्तु अधिकार के अन्तर्गत ‘पेज्जपाहुड़’ नामक तृतीय पाहुड़ इसका विषय है।<a href="#_ftn1" name="_ftnref1" title="" id="_ftnref1"> १६००० पद प्रमाण इस का मूल विषय वि०पू०प्रथम शताब्दी में ज्ञानोच्छेद के भय से युक्त आ०गुणधर देव द्वारा १८० सूत्र गाथाओं में उपसहृत कर दिया गया।<a href="#_ftn2" name="_ftnref2" title="" id="_ftnref2"> १८०सूत्र गाथा परिमाण यह ग्रन्थ कर्म्म प्रकृति आदि १५ अधिकारों में विभक्त है।<a href="#_ftn3" name="_ftnref3" title="" id="_ftnref3"> आ०गुणधर द्वारा कथित ये १८० गाथायें आचार्य परम्परा से मुख दर मुख आती हुई आर्यमंक्षु और नागहस्ती को प्राप्त हुईं।<a href="#_ftn4" name="_ftnref4" title="" id="_ftnref4"> आचार्य गुणधर के मुख कमल से विनिर्गत इन गाथाओं के अर्थ को उन दोनों आचार्यों के पादमूल में सुनकर आ.यतिवृषभ ने ई.१५०-१८० में ६००० चूर्ण सूत्रों की रचना की।<a href="#_ftn5" name="_ftnref5" title="" id="_ftnref5"> इन्हीं चूर्ण सूत्रों के आधार पर ई०१८० के आसपास उच्चारणाचार्य ने विस्तृत उच्चारणा वृत्ति लिखी, जिसको आधार बनाकर ई०श०५-६ में आ०बप्पदेव ने ६०,००० श्लोक प्रमाण एक अन्य टीका लिखी। इन्हीं बप्पदेव से सिद्धान्त का अध्ययन करके ई०८१६ के आस-पास श्री वीरसेन स्वामी ने इस पर २०,००० श्लोक प्रमाण जयधवला नामक अधूरी टीका लिखी जिसे उनके पश्चात् ई०८३७ में उनके शिष्य आ०जिनसेन ने ४०,००० श्लोक प्रमाण टीका लिखकर पूरा किया इस प्रकार इस ग्रन्थ का उत्तरोत्तर विस्तार होता गया।
यद्यपि ग्रन्थ में आ०गुणधर देव ने १८० गाथाओं का निर्देश किया है, तदपि यहां १८० के स्थान पर २३३ गाथायें उपलब्ध हो रही हैं। इन अतिरिक्त ५३ गाथाओं की रचना किसने की, इस विषय में आचार्यों तथा विद्वानों का मतभेद है, जिसकी चर्चा आगे की गई है। इन ५३ गाथाओं में १२ गाथायें विषय-सम्बन्ध का ज्ञापन कराने वाली हैं, ६ अद्धा परिमाण का निर्देश करती हैं और ३५ गाथायें संक्रमण वृत्ति से सम्बद्ध हैं। (ती./२/३३), (जै०/१/२८)।
अतिरिक्त गाथाओं के रचयिता कौन?–श्री वीरसेन स्वामी इन ५३ गाथाओं को यद्यपि आचार्य गुणधर की मानते हैं (देखें - ऊपर ) तदपि इस विषय में गुणधरदेव की अज्ञता का जो हेतु उन्होंने प्रस्तुत किया है उसमें कुछ बल न होने के कारण विद्वान् लोग उनके अभिमत से सहमत नहीं है और इन्हें नागहस्ती कृत मानना अधिक उपयुक्त समझते हैं। इस सन्दर्भ में वे निम्न हेतु प्रस्तुत करते हैं।- यदि ये गाथायें गुणधर की होतीं तो उन्हें १८० के स्थान पर २३३ गाथाओं का निर्देश करना चाहिये था।
- इन ५३ गाथाओं की रचनाशैली मूल वाली १८० गाथाओं से भिन्न है।
- सम्बन्ध ज्ञापक और अद्धा परिमाण वाली १८ गाथाओं पर यतिवृषभाचार्य के चूर्णसूत्र उपलब्ध नहीं हैं।
- संक्रमण वृत्तिवाली ३५ गाथाओं में से १३ गाथायें ऐसी हैं जो श्वेताम्बराचार्य की शिवशर्म सूरि कृत ‘कर्म प्रकृति’ नामक ग्रन्थ में पाई जाती हैं, जबकि इनका समय वि.श.५ अथवा ई.श.५ का पूर्वार्ध अनुमित किया जाता है।
- ग्रन्थ के प्रारम्भ में दी गई द्वितीय गाथा में १८० गाथाओं को १५ अधिकारों में विभक्त करने का निर्देश पाया जाता है। यदि वह गाथा गुणधराचार्य की की हुई होती तो अधिकार विभाजन के स्थान पर वहां ‘‘१६००० पद प्रमाण कषाय प्राभृत को १८० गाथाओं में उपसंहृत करता हूं’’ ऐसी प्रतिज्ञा प्राप्त होनी चाहिये थी, क्योंकि वे ज्ञानोच्छेद के भय से प्राभृत को उपसंहृत करने के लिए प्रवृत्त हुए थे। (ती./२/३४); (जै०/१/२८-३०)।
- चूड़ामणि
- विजयार्ध की उत्तर श्रेणी का एक नगर। (देखें - विद्याधर )।
- इन्द्रनन्दि श्रुतावतार के अनुसार तुम्बुलाचार्य ने ‘कषायपाहुड़’ तथा ‘षटखण्डागम’ के आद्य ५खण्डों पर कन्नड़ भाषा में ८४००० श्लोक प्रमाण चूड़ामणि नामक एक टीका लिखी थी। ई.१६०४ के भट्टाकलंक कृत कर्णाटक शब्दानुशासन में इसे ‘तत्त्वार्थ महा शास्त्र’ की १६००० श्लोक प्रमाण व्याख्या कही गई है। पं.जुगल किशोर जी मुख्तार तथा डा.हीरा लाल जी शास्त्री के अनुसार ‘तत्त्वार्थ महा शास्त्र’ का अभिप्रेत यहाँ उमास्वामी कृत तत्त्वार्थ सूत्र न होकर सिद्धान्त शास्त्र है। (जै./१/२७५-२७६)।
- चूर्णी
अल्प शब्दों में महान अर्थ का धारावाही विवेचन करने वाले पद चौर्ण अथवा चूर्णी कहलाते हैं। (देखें - अभिधान राजेन्द्र कोश में ‘चुण्णपद’) इसकी रचना का प्रचार दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायों में पाया जाता है। दिगम्बर आम्नाय में यतिवृषभाचार्य ने कषाय पाहुड़ पर चूर्णि सूत्रों की रचना की है। इसी प्रकार श्वेताम्बराम्नाय में भी ‘कर्म प्रकृति’ ‘शतक’ तथा ‘सप्ततिका’ नामक प्राचीन ग्रन्थों पर चूर्णियें उपलब्ध हैं। यथा—- कर्मप्रकृति चूर्णि
शिवशर्म सूरि (वि.५) कृत ‘कर्म प्रकृति’ पर किसी अज्ञात आचार्य द्वारा रचित इस प्राकृत भाषा बद्ध चूर्णि में यद्यपि यत्र तत्र ‘कषायपाहुड़ चूर्णि’ (वि.श.२-३) के साथ साम्य पाया जाता है तदपि शैली।३०६। तथा भाषा का भेद होने से दोनों भिन्न हैं। ३०९। कर्म प्रकृति चूर्णि में जो गद्यांश पाया जाता है वह ‘नन्दि सूत्र’ (वि.५१६) से लिया गया प्रतीत होता है और दूसरी ओर चन्द्रर्षि महत्तर (वि.७५०-१०००) कृत पंच संग्रह के द्वितीय भाग में इस चूर्णि का पर्याप्त उपयोग किया गया है। इसलिये पं.कैलाशचन्द जी इसका रचना काल वि.५५० से ७५० के मध्य स्थापित करते हैं।३११। (जै./१/पृष्ठ)। - कषायपाहुड़ चूर्णि
आ.गुणधर (वि.पू.श.१) द्वारा कथित कषायपाहुड़ के सिद्धान्त सूत्रों पर यति वृषभाचार्य ने वि.श.२-३ में चूर्णि सूत्रों की रचना की थी, जिनको आधार मानकर पश्चाद्वर्ती आचार्यों ने इस ग्रन्थ पर विस्तृत वृत्तियें लिखीं, यह बात सर्वप्रसिद्ध है (देखें - इससे पहले कषाय पाहुड़ )। यद्यपि इन सूत्रों का प्रतिपाद्य भी वही है जो कि कषायपाहुड़ का तथापि कुछ ऐसे विषयों की भी यहां विवेचना कर दी गई है जिनका कि संकेत मात्र देकर गुणधर स्वामी ने छोड़ दिया था।२१०। सिद्धान्त सूत्रों के आधार पर रचित होते हुए भी, आ.वीरसेन स्वामी ने इन्हें सिद्धान्त सूत्रों के समकक्ष माना है और इनको समक्ष रखकर षट्खण्डागम के मूलसूत्रों का समीक्षात्मक अध्ययन किया है।१७४। जिस प्रकार कषाय पाहुड़ के मूल सूत्रों का रहस्य जानने के लिये यतिवृषभ को आर्यमंक्षु तथा नागहस्ति के पादमूल में रहना पड़ा उसी प्रकार इनके चूर्णि सूत्रों का रहस्य समझने के लिये श्री वीरसेन स्वामी को उच्चारणाचार्यों तथा चिरन्ताचार्यों की शरण में जाना पड़ा।१७८। (जै./१/पृष्ठ)। - लघु शतक चूर्णि
श्वेताम्बराचार्य श्री शिवशर्म सूरि (वि.श.५) कृत ‘शतक’ पर प्राकृत गाथा बद्ध यह ग्रन्थ।३५७। चन्द्रर्षि महत्तर की कृति माना गया है।३५८। ये चन्द्रर्षि पंचसंग्रहकार ही है या कोई अन्य इसका कुछ निश्चय नहीं है ( देखें - आगे परिशिष्ट / २ )। परन्तु क्योंकि तत्त्वार्थ भाष्य की सिद्धसेन गणी (वि.श.९) कृत टीका के साथ इसकी बहुत सी गाथाओं या वाक्यों का साम्य पाया जाता है, इसलिए उसके साथ इसका आदान प्रदान निश्चित है।३६२-३६३। वृहद् द्रव्यसंग्रह के मूल में सम्मिलित दिगम्बरीय पंच संग्रह (वि.श.८ से पूर्व) की अति प्रसिद्ध ‘जंसामण्णं गहणं...’ गाथा इसमें उद्धृत पाई जाती है।३६२। इसके अतिरिक्त विशेषावश्यक भाष्य (वि.६५०) की भी अनेकों गाथायें इसमें उद्धृत हुई मिलती हैं।३६०। अभयदेव देव सूरि (वि.१०८८-११३५) के अनुसार उनका स्रित्तरि भाष्य इसके आधार पर रचा गया है। इन सब प्रमाणों पर से यह कहा जा सकता है कि इसकी रचना वि.७५०-१००० में किसी समय हुई है।३६६। - वृहद् शतक चूर्णि
आ.हेमचन्द्र कृत शतक वृत्ति में प्राप्त ‘चूर्णिका बहुवचनान्त निर्देश’ पर से ऐसा लगता है कि शतक पर अनेकों चूर्णियें लिखी गई हैं, परन्तु उनमें से दो प्रसिद्ध हैं–लघु तथा वृहद् । कहीं-कहीं दोनों के मतों में परस्पर भेद पाया जाने से इन दोनों को एक नहीं कहा जा सकता।३६७। लघु चूर्णि प्रकाशित हो चुकी हैं।३१५। शतक चूर्णि के नाम से जिसका उल्लेख प्राय: किया जाता है वह यह (लघु) चूर्णि ही है। बृहद् चूर्णि यद्यपि आज उपलब्ध नहीं है, तदपि आ.मलयगिरि (वि.श.१२ कृत पंचसंग्रह टीका तथा कर्म प्रकृति टीका में ‘उक्तं च शतक वृहच्चूर्णौ’ ऐसे उल्लेख द्वारा वि.श.१२ में इसकी विद्यमानता सिद्ध होती है। परन्तु लघु शतक चूर्णि में क्योंकि इसका नामोल्लेख प्राप्त नहीं होता है इसलिए यह अनुमान किया जा सकता है कि इसकी रचना उसके अर्थात् वि.७५०-१००० के पश्चात् कभी हुई है। - सप्ततिका चूर्णि
‘सित्तरि या सप्ततिका’ नामक श्वेताम्बर ग्रन्थ पर प्राकृत भाषा में लिखित इस चूर्णि में परिमित शब्दों द्वारा ‘सित्तरि’ की ही मूल गाथाओं का अभिप्राय स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। इसमें ‘कर्म प्रकृति’, ‘शतक’ तथा ‘सत्कर्म’ के साथ ‘कषाय पाहुड़’ का भी निर्देश किया गया उपलब्ध होता है।३६८। इसके अनेक स्थलों पर ‘शतक’ के नाम से ‘शतक चूर्णि’ (वि.७५०-१०००) का भी नामोल्लेख किया गया प्रतीत होता है।३७०। आ.अभयदेव सूरि (वि.१०८८-११३५) ने इसका अनुसरण करते हुए सप्ततिका पर भाष्य लिखा है।३७०। और इसी का अर्थावबोध कराने के लिये आ.मलयगिरि (वि.श.१२) ने सप्ततिका पर टीका लिखी है।३६८। इसलिये इसका रचना काल वि.श.१०-११ माना जा सकता है।३७०। (जै./१/पृष्ठ)।
- कर्मप्रकृति चूर्णि
- तत्त्वार्थसूत्र
- सामान्य परिचय
दश अध्यायों में विभक्त छोटे छोटे ३५७ सूत्रों वाले इस ग्रन्थ ने जैनागम के सकल मूल तथ्यों का अत्यन्त संक्षिप्त परन्तु विशद विवेचन करके गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ कर दिया है इसलिये जैन सम्प्रदाय में इस ग्रन्थ का स्थान आगम ग्रन्थों की अपेक्षा किसी प्रकार भी कम नहीं। सूत्र संस्कृत भाषा में रचे गए हैं। साम्प्रदायिकता से ऊपर होने के कारण दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायों में इसको सम्मान प्राप्त है। जैनाम्नाय में यह संस्कृत का आद्य ग्रन्थ माना जाता है क्योंकि इससे पहले के सर्व ग्रन्थ मागधी अथवा शौरसैनी प्राकृत में लिखे गए हैं। द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग इन तीनों अनुयोगों का सकल सार इसमें गर्भित है। (ती.२/१५५-१५६)। (जै०/२/२४७)। सर्वार्थ सिद्धि राजवार्तिक तथा श्लोक वार्तिक इस ग्रन्थ की सर्वाधिक मान्य टीकायें हैं। इसके अनुसार इस ग्रन्थ का प्राचीन नाम तत्त्वार्थ सूत्र न होकर ‘तत्त्वार्थ’ अथवा ‘तत्त्वार्थ शास्त्र’ है। सूत्रात्मक होने के कारण बाद में यह तत्त्वार्थ सूत्र के नाम से प्रसिद्ध हो गया। मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करने के कारण ‘मोक्ष शास्त्र’ भी कहा जाता है। (ती./२/१५३) (जै./२/२४६,२४७)। जैनाम्नाय में यह आद्य संस्कृत ग्रन्थ माना जाता है क्योंकि इससे पहले के सकल शास्त्र प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। (जै./२/२४८)। - दिगम्बर ग्रन्थ
यद्यपि यह ग्रन्थ दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों को मान्य है परन्तु दोनों आम्नायों में इसके जो पाठ प्राप्त होते हैं उनमें बहुत कुछ भेद पाया जाता है (ती./२/१६२), (जै./२/२५१)। दिगम्बराम्नाय वाले पाठ के अध्ययन से पता चलता है कि सूत्रकार ने अपने गुरु कुन्दकुन्द के प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, नियमसार आदि ग्रन्थों का इस ग्रन्थ में पूरी तरह अनुसरण किया है, जैसे द्रव्य के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले सद्रव्य लक्षणम्, उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्, गुण पर्ययवद्द्रव्यम् ये तीन सूत्र पञ्चास्तिकाय की दशमी गाथा का पूरा अनुसरण करते हैं। (ती./२/१५१,१५९,१६०) (जै./२/१५९)। इसलिए श्वेताम्बर मान्य तत्त्वार्थाधिगम से यह भिन्न है। यह वास्तव में कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ न होकर मूल तत्त्वार्थ सूत्र पर रचित भाष्य है (ती./२/१५०)। दूसरी बात यह भी कि दिगम्बर आम्नाय में इसका जितना प्रचार है उतना श्वेताम्बर आम्नाय में नहीं है। वहाँ इसे आगम साहित्य से कुछ छोटा समझा जाता है। (जै./२/२४७) दिगम्बर आम्नाय में इसकी महत्ता इस बात से भी सिद्ध है कि जितने भाष्य या टीकायें इस ग्रन्थ पर लिखे गए उतने अन्य किसी ग्रन्थ पर नहीं हैं।- आ०समन्तभद्र (वि.श.२-३) कृत गन्धहस्ति महाभाष्य;
- आ.पूज्यपाद (ई.श.५) कृत सर्वार्थसिद्धि;
- योगीन्द्रदेव (ई.श.६) विरचित तत्त्व प्रकाशिका;
- अकलंक भट्ट (ई.६२०-६८०) विरचित तत्त्वार्थ राजवार्तिकालंकार;
- विद्यानन्दि (ई.७७५-८४०) रचित श्लोकवार्तिक;
- अभयनन्दि (ई.श.१०-११) कृत तत्त्वार्थवृत्ति;
- आ.शिवकोटि (ई.श.११) कृत रत्नमाला;
- आ.प्रभाचन्द्र (वि.श.११) कृत तत्त्वार्थ वृत्ति पद;
- आ.भास्करानन्दि (वि.श.१२-१३) कृत सुखबोधिनी;
- मुनि बालचन्द्र (वि.श.१३ का अन्त) कृत तत्त्वार्थ सूत्रवृत्ति (कन्नड़);
- योगदेव भट्टारक (वि.१६३६) रचित सुखबोध वृत्ति;
- विबुध सेनाचार्य (?) विरचित तत्त्वार्थ टीका;
- प्रभाचन्द्र नं.८ (वि.१४८९) कृत तत्त्वार्थ रत्न प्रभाकर;
- भट्टारक श्रुतसागर (वि.श.१६) कृत तत्त्वार्थ वृत्ति। जबकि श्वेताम्बर आम्नाय में केवल ३ टीकायें प्रचलित हैं।
- वाचक उमास्वाति कृत तत्त्वार्थाधिगम भाष्य;
- सिद्धसेन गणी (वि.श.५) कृत तत्त्वार्थ भाष्य वृत्ति;
- हरिभद्र सुनुकृत तत्त्वार्थ भाष्य वृत्ति (वि.श./८-९)।
- कथा
सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में इस ग्रन्थ की रचना के विषय में एक संक्षिप्त सा इतिवृत्त दिया गया है, जिसे पश्चद्वर्ती आचार्यों ने भी अपनी टीकाओं में दोहराया है। तदनुसार इस ग्रन्थ की रचना सौराष्ट्र देश में गिरनार पर्वत के निकट रहने वाले किसी एक आसन्न भव्य शास्त्रवेत्ता श्वेताम्बर विद्वान के निमित्त से हुई थी। उसने ‘दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:’ यह सूत्र बनाकर अपने घर के बाहर किसी पाटिये पर लिख दिया था। कुछ दिनों पश्चात् चर्या के लिए गुजरते हुए भगवान् उमास्वामी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उस सूत्र के आगे ‘सम्यक्’ पद जोड़ दिया। यह देखकर वह आसन्न भव्य खोज करता हुआ उनकी शरण को प्राप्त हुए। आत्महित के विषय में कुछ चर्चा करने के पश्चात् उसने इनसे इस विषय में सूत्र ग्रन्थ रचने की प्रार्थना की, जिससे प्रेरित होकर आचार्य प्रवर ने यह ग्रन्थ रचा। सर्वार्थ सिद्धिकार ने उस भव्य के नाम का उल्लेख नहीं किया, परन्तु पश्चाद्वर्ती टीकाकारों ने अपनी-अपनी कृतियों में उसका नाम कल्पित कर लिया है। उपर्युक्त टीकाओं में से अष्टम तथा दशम टीकाओं में उसका नाम ‘सिद्धमय’ कहा गया है, जबकि चतुर्दशतम में उसे ‘द्वैपायन’ बताया गया है। इस कथा में कितना तथ्य है यह तो नहीं कहा जा सकता। परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ किसी आसन्न भव्य के लिये लिखा गया था। (ती./२/१५३) (जै./२/२४५)। - समय
ग्रन्थ में निबद्ध ‘सत्संख्याक्षेत्र स्पर्शन कालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च।१/८।‘ सूत्र ष.ख./१/१/७ का रूपान्तरण मात्र है। दूसरी ओर कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का इसमें अनुसरण किया गया है, तीसरी ओर आ.पूज्यपाद देवनन्दि ने इस पर सर्वार्थसिद्धि नामक टीका लिखी है। इसलिये इस ग्रन्थ का रचनाकाल षट्खण्डागम (वि.श.५) और कुन्दकुन्द (वि.श.२-३) के पश्चात् तथा पूज्यपाद (वि.श.२) से पूर्व कहीं होना चाहिये। पं.कैलाशचन्द जी वि.श.३ का अन्त स्वीकार करते हैं। (जै./२/२६९-२७०)।
- सामान्य परिचय
- धवला जयधवला
कषाय पाहुड़ तथा षट्खण्डागम के आद्य पाँच खण्डों पर ई.शताब्दी ३ में आ.बप्पदेव ने जो व्याख्या लिखी थी (देखें - बप्पदेव ); वाटग्राम (बड़ौदा) के जिनालय में प्राप्त उस व्याख्या से प्रेरित होकर आ.वीरसेन स्वामी ने इन नामों वाली अति विस्तीर्ण टीकायें लिखीं (देखें - वीरसेन )। इनमें से ७२००० श्लोक प्रमाण धवला टीका षट्खण्डागम के आद्य पाँच खण्डों पर है, और ६०,००० श्लोक प्रमाण जयधवला टीका कषाय पाहुड़ पर है। इसमें से २०,००० श्लोक प्रमाण आद्य एक तिहाई भाग आ.वीरसेन स्वामी का है और ४०,००० श्लोक प्रमाण अपर दो तिहाई भाग उनके शिष्य जिनसेन द्वि.का है, जो कि उनके स्वर्गारोहण के पश्चात् ग्रन्थ को पूरा करने के लिये उन्होंने रचा था। (इन्द्र नन्दिश्रुतावतार)।१७७-१८४। ये दोनों ग्रन्थ प्राकृत तथा संस्कृत दोनों से मिश्रित भाषा में लिखे गए हैं। दर्शनोपयोग, ज्ञानोपयोग, संयम, क्षयोपशम आदि के जो स्वानुभवगम्य विशद् लक्षण इस ग्रन्थ में प्राप्त होते हैं, और कषायपाहुड़ तथा षट्खण्डागम की सैद्धान्तिक मान्यताओं में प्राप्त पारस्परिक विरोध का जो सुयुक्ति युक्त तथा समतापूर्ण समन्वय इन ग्रन्थों में प्रस्तुत किया गया है वह अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। इनके अतिरिक्त प्रत्येक विषय में स्वयं प्रश्न उठाकर उत्तर देना तथा दुर्गम विषय को भी सुगम बना देना, इत्यादि कुछ ऐसी विशिष्टतायें हैं जिनके कारण टीका रूप होते हुए भी ये आज स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध हो गए हैं। अपनी अन्तिम प्रशस्ति के अनुसार जयधवला की पूर्ति आ.जिनसेन द्वारा राजा अमोघवर्ष के शासन काल (शक.७५९, ई.८३७) में हुई। प्रशस्ति के अर्थ में कुछ भ्रान्ति रह जाने के कारण धवला की पूर्ति के काल के विषय में कुछ मतभेद है। कुछ विद्वान इसे राजा जगतुंग के शासन काल (शक.७३८,ई.८१६) में पूर्ण हुई मानते हैं। और कोई वि.८३८ (ई.७८१) में मानते हैं। जयधवला की पूर्ति क्योंकि उनकी मृत्यु के पश्चात् हुई है इसलिये धवला की पूर्ति का यह काल (ई.७८१) ही उचित प्रतीत होता है। दूसरी बात यह भी है कि पुन्नाट संघीय आ.जिनसेन ने क्योंकि अपने हरिवंश पुराण की प्रशस्ति (शक.७०३,ई.७८१) में वीरसेन के शिष्य पंचस्तूपीय जिनसेन का नाम स्मरण किया है इसलिए इस विषय में दिये गए दोनों ही मत समन्वित हो जाते हैं। (ज./१/२५५); (ती./२/३२४)।
<a href="#_ftnref1" name="_ftn1" title="" id="_ftn1"> पुव्वम्मि पंचम्मि दु दसमे वत्थुम्हि पाहुडे तदिए। पेज्जं त्ति पाहुम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडंणाम।। (क.पा.१/६८/८७)।
<a href="#_ftnref2" name="_ftn2" title="" id="_ftn2"> एदं पेज्जदोसपाहुडं सोलसपदसहस्सपमाणं होंतं असीदि सदमेत्तगाहाह उवसंघारिदं। (ज.ध.१/६८/८७)।
<a href="#_ftnref3" name="_ftn3" title="" id="_ftn3"> गाहासदे असीदे अत्थे पण्णरसधा विहत्तम्मि। वोच्छामि सुत्त गाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि।। (क.पा.१/२/पृ.११)।
<a href="#_ftnref4" name="_ftn4" title="" id="_ftn4"> पुणा ताओ सुत्त गाहाओआइरिय परंपराए आगच्छमाणाओ अज्जमखुणागहत्थीणं पत्ताओ।। (ज.ध./१/पृ.८८)।
<a href="#_ftnref5" name="_ftn5" title="" id="_ftn5"> पुणो तेसिं दोण्हंपि पादमूले असीदिसदगाहाणं गुणहरमुह कमलविणिग्गायाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवसह भडारएण पवयणवच्छलेण चुण्णिसुत्तं कयं। (ज.ध.१/६८/८८)।