मोक्षपाहुड गाथा 105
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो अंतसमाधिमरण में चार आराधना का आराधन कहा है यह भी आत्मा ही की चेष्टा है इसलिए आत्मा ही का मेरे शरण है -
सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारितं हि सत्तवं चेव ।
चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।।१०५।।
सम्यक्त्वं सज्ज्ञानं सच्चरित्रं हि सत्तप: चैव ।
चत्त्वार: तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुटं मे शरणं ।।१०५।।
सम्यक् सुदर्शन ज्ञान तप समभाव सम्यक् आचरण ।
सब आतमा की अवस्थायें आत्मा ही है शरण ।।१०५।।
अर्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप ये चार आराधना हैं ये भी आत्मा में ही चेष्टारूप हैं, ये चारों आत्मा ही की अवस्था हैं, इसलिए आचार्य कहते हैं कि तेरे आत्मा ही का शरण है ।।१०५।।
भावार्थ - आत्मा का निश्चय-व्यवहारात्मक तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप परिणाम सम्यग्दर्शन है, संशय-विमोह-विभ्र से रहित और निश्चयव्यवहार से निजस्वरूप का यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान है, सम्यग्ज्ञान से तत्त्वार्थो को जानकर रागद्वेषादिक रहित परिणाम होना सम्यक्चारित्र है, अपनी शक्ति अनुसार सम्यग्ज्ञानपूर्वक कष्ट का आदर कर स्वरूप का साधना सम्यक् तप है, इसप्रकार ये चारों ही परिणाम आत्मा के हैं, इसलिए आचार्य कहते हैं कि मेरी आत्मा ही का शरण है, इसी की भावना में चारों आ गये । अंतसल्लेखना में चार आराधना का आराधन कहा है, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप इन चारों का उद्योत, उद्यवन, निर्वहण, साधन और निस्तरण ऐसे पंच प्रकार आराधना कही है, वह आत्मा को भाने में (आत्मा की भावना-एकाग्रता करने में) चारों आ गये ऐसे अंतसल्लेखना की भावना इसी में आ गई, ऐसे जानना तथा आत्मा ही परम मंगलरूप है ऐसा भी बताया है ।।१०५।।