योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 115
From जैनकोष
मिथ्यात्व-पोषक परिणाम -
आसमस्मि भविष्यामि स्वामी देहादि-वस्तुन: ।
मिथ्या-दृष्टेरियं बुद्धि: कर्मागमन-कारिणी ।।११५।।
अन्वय :- (अहं) देहादि-वस्तुन: स्वामी आसम्, अस्मि, भविष्यामि - मिथ्यादृष्टे: इयं बुद्धि: कर्मागमन-कारिणी (भवति) ।
सरलार्थ :- `ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, मोह-राग-द्वेषादि भावकर्म एवं शरीरादि नोकर्मरूप वस्तुओं का पहले अर्थात् भूतकाल में मैं स्वामी था, इन वस्तुओं का वर्तमानकाल में मैं स्वामी हूँ और आगे भविष्यकाल में मैं स्वामी होऊँगा'; मिथ्यादृष्टि की यह बुद्धि कर्मो का आस्रव करानेवाली है ।
भावार्थ :- इस श्लोक के भाव को स्पष्ट जानने के लिए समयसार गाथा २१ एवं २२ तथा इनकी हिन्दी टीका अत्यन्त उपयोगी है, उसे अवश्य देखें । इन गाथाओं का मात्र अर्थ यहाँ दे रहे हैं - ``(जो पुरुष अपने से अन्य परद्रव्यों में) यह मेरा पहले था, इसका मैं भी पहले था, यह मेरा भविष्य में होगा, मैं भी इसका भविष्य में होऊँगा - ऐसा झूठा आत्मविकल्प करता है, वह मूढ़ है - मोही है - अज्ञानी है और जो पुरुष परमार्थ वस्तुस्वरूप को जानता हुआ ऐसा झूठा विकल्प नहीं करता वह मूढ़ नहीं ज्ञानी है । भूतकाल के विपरीत परिणामों से जिसे मिथ्यात्व कर्म का बन्ध हो गया है और वर्तमानकाल में व भविष्यकाल के लिये भी जो बाधक सिद्ध हो रहा है; उस मिथ्यात्व का क्षय करने हेतु निज शुद्धात्मा का आश्रयरूप पुरुषार्थ करना ही एकमात्र उपाय है, अन्य कोई नहीं ।