योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 127
From जैनकोष
मिथ्यात्व से देह संबंधी विपरीतता -
अचेतनत्वमज्ञात्वा स्वदेह-परदेहयो: ।
स्वकीय-परकीयात्मबुद्धितस्तत्र वर्तते ।।१२७।।
अन्वय :- (मिथ्यादृष्टि:) स्वदेह-परदेहयो: अचेतनत्वं अज्ञात्वा तत्र स्वकीय-परकीय आत्मबुद्धित: वर्तते ।
सरलार्थ :- अज्ञानी/मिथ्यादृष्टि जीव स्वदेह और परदेह के अचेतनपने को न जानकर स्वदेह में आत्मबुद्धि से और परदेह में परकीय आत्मबुद्धि से प्रवृत्त होता है अर्थात् अपने शरीर को अपना आत्मा और पर के शरीर को पर का आत्मा समझकर व्यवहार करता है ।
भावार्थ :- स्थूल शरीर को औदारिक शरीर कहते हैं । यह मनुष्य और तिर्यंचों को होता है । औदारिक शरीर आहारवर्गणाओं से बनता है । आहारवर्गणा पुद्गलमय है । पुद्गलद्रव्य अचेतनरूप है । जो जैसा है, उसे वैसा ही जानना चाहिए । मूढ़ जीव शरीर के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता । जीवादि सात तत्त्वों में शरीर अजीव तत्त्व है । जो किसी एक तत्त्व को अन्यथा जानता है, वह अन्य सर्व तत्त्वों को भी नियम से अन्यथा ही जानता है; ऐसा समझना चाहिए । समाधिशतक श्लोक १० में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने भी इसी अर्थ को निम्न शब्दों में स्पष्ट किया है :- स्वदेहसदृशं दृष्ट्वा परदेहमचेतनम् । परात्माधिष्ठितं मूढ: परत्वेनाध्यवस्यति ।। अर्थ :- अज्ञानी बहिरात्मा, अन्य आत्मा के साथ रहनेवाले, दूसरे के अचेतन शरीर को, अपने अचेतन शरीर समान देखकर अन्य के आत्मारूप से मानता है ।