योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 128
From जैनकोष
मिथ्यात्व से पुत्रादिक में आत्मीय बुद्धि -
यदात्मीयमनात्मीयं विनश्वरमनश्वरम् ।
सुखदं दुखदं वेत्ति न चेतनमचेतनम् ।।१२८।।
पुत्र-दारादिके द्रव्ये तदात्मीयत्व-शेुषीम् ।
कर्मास्रवमजानानो विधत्ते मूढ़ानस: ।।१२९।।
अन्वय :- यदा (अयं जीव:) आत्मीयं, अनात्मीयं, विनश्वरं, अनश्वरं, सुखदं, दु:खदं , चेतनं, अचेतनं (वा) न वेत्ति । तदा कर्म-आस्रवं अजानान: मूढानस: पुत्र-दारादिके द्रव्ये आत्मीयत्व-शेुषीं विधत्ते ।
सरलार्थ :- जबतक यह जीव आत्मीय-अनात्मीय, विनाशीक-अविनाशीक, सुखदायी- दु:खदायी और चेतन-अचेतनको नहीं जानता है तबतक कर्मके आस्रवको न जानता हुआ यह मूढ प्राणी, पुत्र-स्त्री आदि पदार्थो में आत्मीयत्व की बुद्धि रखता है - उन्हें अपना समझता है ।
भावार्थ :- किसी न किसी पदार्थ में अहंबुद्धि, ममबुद्धि, कर्ताबुद्धि एवं भोक्ताबुद्धि करना/ रखना यह संसारी जीव के स्वभाव में ही गर्भित है । यदि अपना त्रिकाली निज भगवान आत्मा ही अहंबुद्धि आदि के लिए मिलता है तो वह उसी में अहंबुद्धि आदि करते हुए मोक्षमार्गी होकर मोक्ष ही प्राप्त करता है । किन्तु यदि उसे अपना निज स्वरूप श्रद्धा-ज्ञान के लिये प्राप्त नहीं होता है, तो वह जीव जो वस्तु नित्य उसके इन्द्रिय ज्ञान का ज्ञेय/विषय बनती रहती है, उसी में अहंबुद्धि आदि करता है । पुत्रादि का शारीरिक रूप-रंग अपने शरीर के समान जानकर अज्ञानी का मोह और भी अधिक दृढ होता है । इसलिए जिनवाणी के आधार से अपने आत्म-स्वभाव का सम्यग्ज्ञान करना चाहिए ।