योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 137
From जैनकोष
मिथ्यादृष्टि के कार्य का खुलासा -
राग-मत्सर-विद्वेष-लोभ-मोह- मदादिषु ।
हृषीक-कर्म-नोकर्म-रूप-स्पर्श-रसादिषु ।।१३७।।
एतेsहमहमेतेषामिति तादात्म्यमात्मन: ।
विमूढ़: कल्पयन्नात्मा स्व-परत्वं न बुध्यते ।।१३८।।
अन्वय :- विमूढ: आत्मा राग-मत्सर-विद्वेष-लोभ-मोह-मद-आदिषु ह्रषीक-कर्म- नोकर्म-रूप-स्पर्श-रस-आदिषु एते अहं एतेषां अहं इति आत्मन: तादात्म्यं कल्पयन् स्व-परत्वं न बुध्यते ।
सरलार्थ :- मूढ आत्मा अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव राग, द्वेष, ईर्षा, लोभ, मोह, मदादिक में तथा इंद्रिय, कर्म, नोकर्म, रूप, रस, स्पर्शादिक विषयों में - ये मैं हूँ और मैं इनका हूँ, इसप्रकार आत्मा के तादात्म्य/एकत्व की कल्पना करता हुआ स्व-पर-विवेक को अर्थात् अपने और पर के यथार्थ बोध अर्थात् भेदज्ञान को प्राप्त नहीं होता ।
भावार्थ :- इस श्लोक के भाव को स्पष्ट समझने के लिये समयसार की १९ से २२ पर्यन्त सब गाथाएँ, इनकी टीका एवं हिन्दी भावार्थ अवश्य देखिए ।