योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 139
From जैनकोष
अचारित्र का स्वरूप -
हिंसने वितथे स्तेये मैथुने च परिग्रहे ।
मनोवृत्तिरचारित्रं कारणं कर्मसंतते: ।।१३९।।
अन्वय :- हिंसने वितथे स्तेये मैथुने परिग्रहे च मनोवृत्ति: अचारित्रं कर्मसंतते: कारणं ।
सरलार्थ :- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों में मन की जो प्रवृत्ति होती है; उसे अचारित्र अर्थात् मिथ्याचारित्र कहते हैं, यह प्रवृत्ति, कर्म-संतति अर्थात् कर्म की उत्पत्ति, स्थिति तथा परंपरा का कारण है ।
भावार्थ :- यहाँ अचारित्र का अर्थ मिथ्याचारित्र समझना, क्योंकि उसे कर्मसंतति का कारण कहा गया है । सम्यग्दृष्टि को असंयम होने पर भी वह कर्म की परम्परा का कारण नहीं बन सकता । यही भाव आगामी श्लोकों के अर्थ में भी ध्यान रखें । इस आस्रव अधिकार में ४० श्लोकों में से ३० श्लोकों में मिथ्यात्व के कारण से होनेवाले परिणामों का और आस्रव का कथन किया है । अब इस श्लोक में आस्रव के लिये जो दूसरा कारण अविरति है, उसका वर्णन प्रारंभ करते हैं । इन श्लोकों के अनुपात से भी पाठकों को समझ में आना चाहिए कि आस्रव में मुख्य कारण एक मिथ्यात्व ही है ।