योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 144
From जैनकोष
इंद्रिय-जनित सुख, दु:ख ही है -
अनित्यं पीडकं तृष्णा-वर्धकं कर्मकारणम् ।
शर्माक्षजं पराधीनमशर्मैव विदुर्जिना: ।।१४४।।
अन्वय :- अनित्यं, पीडकं, तृष्णा-वर्धकं, कर्मकारणं पराधीनं अक्षजं शर्म जिना: अशर्म एव विदु: ।
सरलार्थ :- जो अनित्य हैं, पीड़ाकारक है, तृष्णावर्धक है, कर्मबंध का कारण है, पराधीन है, उस इंद्रियजन्य सुख को जिनराजों ने असुख अर्थात् दु:ख ही कहा है ।
भावार्थ :- पिछले श्लोक में जिस इन्द्रियसुख का उल्लेख है उसके कुछ विशेषणों को इस श्लोक में और स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि `वह एक तो क्षणभंगुर है अर्थात् नित्य रहनेवाला नहीं । पीड़ाकारक है, अर्थात् दु:ख को साथ में लिये हुए हैं । मात्र तृष्णा को उत्पन्न ही नहीं करता, किन्तु उसे बढ़ानेवाला है । कर्मो के आस्रव-बन्ध का कारण है और साथ ही स्वाधीन न होकर पराधीन है । इसी से जिनेन्द्र भगवान उसे वस्तुत: दु:ख ही कहते हैं । प्रवचनसार गाथा ६ की टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने देवेन्द्रादि के पदप्राप्ति को वैभवक्लेश कहा है । आगे ११वीं गाथा की टीका में और स्पष्ट एवं कठोर शब्दों में कहा है ``अग्नि से गरम किया हुआ घी किसी मनुष्य पर डाल दिया जावे तो वह उसकी जलन से दुखी होता है; उसीप्रकार वह स्वर्गसुख के बंध को प्राप्त होता है । प्रवचनसार के ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन नामक प्रथम अधिकार में आचार्य अमृतचन्द्र ने आनन्द अधिकार दिया है, जिसे आचार्य जयसेन ने सुखप्रपंच अंतर अधिकार कहा है । दोनों पठनीय हैं ।