योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 149
From जैनकोष
भेदज्ञानी तथा मिथ्या कल्पनाओं का त्यागी ही मुक्त होता है -
(शार्दूलविक्रीडित)
मिथ्याज्ञान-निविष्ट-योग-जनिता: संकल्पना भूरिश:
संसार-भ्रकारिकर्म-समितेरावर्जने या क्षमा: ।।
त्यज्यन्ते स्व-परान्तरं गतवता नि:शेषतो येन तास्तेनात्म ा विगताष्टकर्म-विकृति: संप्राप्यते तत्त्वत: ।।१४९।।
अन्वय :- मिथ्याज्ञान-निविष्ट-योग-जनिता: भूरिश: संकल्पना: संसार-भ्रणकारि- कर्म-समिते: आवर्जने या: क्षमा: ता: स्व-परान्तरं गतवता येन (योगिना) नि:शेषत: त्यज्यन्ते तेन तत्त्वत: विगत-अष्ट-कर्म-विकृति: (यस्मात् स:) आत्मा संप्राप्यते ।
सरलार्थ :- `मिथ्याज्ञान पर आधारित योगों से उत्पन्न हुई जो बहुत-सी कल्पनाएँ/वृत्तियाँ संसार-भ्रण करानेवाले कर्मसमूह के आस्रव में समर्थ हैं; वे स्व-पर के भेद को पूर्णत: जाननेवाले जिस योगी के द्वारा पूरी तरह त्यागी जाती हैं; उसके द्वारा वस्तुत: आठों कर्मो की विकृति से रहित शुद्ध आत्मा प्राप्त किया जाता है - कर्मो के सारे विकार से रहित विविक्त आत्मा की उपलब्धि उसी योगी को होती है, जो उक्त योगजनित कल्पनाओं एवं कर्मास्रव-मूलक वृत्तियों का पूर्णत: त्याग करता है ।
भावार्थ :- यह इस आस्रवाधिकार का उपसंहार-श्लोक है, जिसमें चौथे योग जनित आस्रवहेतुओं का दिग्दर्शन कराते हुए यह सूचित किया है कि मिथ्याज्ञान पर अपना आधार रखनेवाली मन-वचन-कायरूप त्रियोगों की कल्पनाएँ/प्रवृत्तियाँ बहुत अधिक हैं और वे सभी संसार में इस जीव को भ्रण करानेवाले कर्म/समूह के आस्रव में समर्थ हैं । जिस स्व-पर-भेद विज्ञानी योगी के द्वारा वे सब मन-वचन-काय की प्रवृत्तियाँ त्यागी जाती हैं; वह वास्तव में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय इन आठों कर्मो के विकारों से रहित अपने शुद्धात्मा को प्राप्त होता है, जिसे `विविक्तात्मा' के रूप में ग्रन्थ के शुरू से ही उल्लेखित करते आये हैं और जिसका परिज्ञान तथा प्राप्ति कराना ही इस ग्रन्थ का एक मात्र लक्ष्य है । जिस मिथ्याज्ञान का यहाँ उल्लेख है, वह इस (प्रथम अध्याय १२वाँ श्लोक) ग्रन्थ में वर्णित `मिथ्याज्ञानं मतं तत्र मिथ्यात्वसमवायत:' इस वाक्य के अनुसार वह दूषित ज्ञान है जो मिथ्यात्व के सम्बन्ध को साथ में लिये हुए होता है और मिथ्यात्व उसे कहते हैं जिसके कारण ज्ञान में वस्तु का अन्यथा बोध हो/वस्तु जिस रूप में स्थित है उस रूप में उसका ज्ञान न होकर विपरीतादि के रूप में जानना बने और जो सारे कर्मरूपी बगीचे को उगाने के लिये जलदान का काम करता है । इसप्रकार श्लोक क्रमांक ११० से १४९ पर्यन्त ४० श्लोकों में यह तीसरा `आस्रव-अधिकार' पूर्ण हुआ ।