योगसार - जीव-अधिकार गाथा 31
From जैनकोष
भव्यात्मा ही परमात्मा के स्वरूप को स्वीकारता है -
घातिकर्मक्षयोत्पन्नं यद्रूपं परमात्मन: ।
श्रद्धत्ते भक्तितो भव्यो नाभव्यो भववर्धक: ।।३१ ।।
अन्वय :- परमात्मन: घातिकर्मक्षयोत्पन्नं यद् रूपं भव्य: भक्तित: श्रद्धत्ते भववर्धक: अभव्य: न (श्रद्धत्ते) ।
सरलार्थ :- घाति कर्मो के क्षय से उत्पन्न हुये परमात्मा के जिस स्वरूप का भव्यात्मा भक्ति से श्रद्घान करता है; अभव्य जीव उसका श्रद्धान नहीं करता; क्योंकि वह अभव्य जीव स्वभाव से भववर्धक होता है ।