योगसार - जीव-अधिकार गाथा 59
From जैनकोष
निज शुद्धात्मा के ध्यान से मुक्ति -
(मालिनी)
गलित-निखिल-राग-द्वेष-मोहादि-दोष:
सततमिति विभक्तं चिन्तयन्नात्मतत्त्वम् । गतमलमविकारं ज्ञान-दृष्टि-स्वभावं जनन-मरण-मुक्तं मुक्तिमाप्नोति योगी ।।५९ ।।
अन्वय :- गतमलं अविकारं जनन-मरण-मुक्तं विभक्तं ज्ञान-दृष्टि-स्वभावं इति आत्मतत्त्वं सततं चिन्तयन् गलित-निखिल-राग-द्वेष-मोहादि-दोष: योगी मुक्तिं आप्नोति ।
सरलार्थ :- जो ज्ञानावरणादि कर्मरूपी मल से रहित है, रागादि विकारी भावों से शून्य है, जन्म-मरण से मुक्त है और विभक्त अर्थात् परपदार्थो से भिन्न ज्ञान-दर्शन स्वभावमय है - ऐसे निजात्म तत्त्व को सतत अर्थात् निरंतर ध्याता हुआ जो योगी पूर्णत: राग-द्वेष-मोह आदि दोषों से रहित हो जाता है, वह मुक्ति को प्राप्त करता है ।