योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 152
From जैनकोष
चारों बंधों का सामान्य स्वरूप -
निसर्ग: प्रकृतिस्तत्र स्थिति: कालावधारणम् ।
सुसंक्लिप्ति: प्रदेशोsस्ति विपाकोsनुभव: पुन: ।।१५२।।
अन्वय :- तत्र निसर्ग: प्रकृति:, कालावधारणं स्थिति:, सुसंक्लिप्ति: प्रदेश:, पुन: विपाक: अनुभव: अस्ति ।
सरलार्थ :- उक्त चार प्रकार के कर्मबन्धों में कर्म के स्वभाव का नाम प्रकृतिबन्ध, कर्म के जीव के साथ रहने की कालावधि का नाम स्थितिबन्ध, कर्मो का जीव के प्रदेशों में संश्लेष हो जाने का नाम प्रदेशबन्ध और कर्म के फलदान शक्ति का नाम अनुभव/अनुभागबन्ध है ।