योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 153
From जैनकोष
कर्मबन्ध का स्वामी -
रागद्वेषद्वयालीढ: कर्म बध्नाति चेतन: ।
व्यापारं विदधानोsपि तदपोढ़ो न सर्वथा ।।१५३।।
अन्वय :- राग-द्वेषद्वयालीढ: चेतन: कर्म बध्नाति तदपोढ: (राग-द्वेषाभ्याम् अपोढ़:) (योगस्य) व्यापारं विदधान: अपि न सर्वथा (कर्म बध्नाति) ।
सरलार्थ :- राग-द्वेष-दोनों से सहित चेतन/आत्मा कर्म बांधता है और राग-द्वेष से रहित आत्मा मन-वचन-काय की क्रिया को करता हुआ भी कर्म का बन्ध किंचित् मात्र भी नहीं करता ।