योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 167
From जैनकोष
न भोगता हुआ मिथ्यादृष्टि बंधक -
सरागो बध्यते पापैरभुञ्जानोs पि निश्चितम् ।
अभुञ्जाना न किं मत्स्या: श्वभ्रं यान्ति कषायत: ।।१६७।।
अन्वय :- अभुञ्जाना: मत्स्या: कषायत: किं श्वभ्रं न यान्ति ? (अवश्यमेव यान्ति; तथा एव) अभुञ्जान: अपि सराग: (जीव:) निश्चितं पापै: बध्यते ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार स्वयम्भूरमण समुद्र में रहनेवाला तन्दुलमत्स्य न भोगता हुआ भी क्या कषाय से अर्थात् भोगने की लालसा से नरक को प्राप्त नहीं होता? अर्थात् नरक को प्राप्त होता ही है । उसीप्रकार द्रव्यों को न भोगता हुआ भी भोग में सुख की मान्यता रखनेवाला सरागी अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वादि सर्व पाप कर्मो के बंध को प्राप्त होता है, यह निश्चित है ।