योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 185
From जैनकोष
जीव के अमूर्तिकपने का उदाहरण -
विकारं नीयमानोsपि कर्मभि: सविकारिभि: ।
मेघैरिव नभो याति स्वस्वभावं तदत्यये ।।१८५।।
अन्वय :- सविकारिभि: कर्मभि: विकारं नीयमान: अपि (जीव:) मेघै: अत्यये नभ: इव तदत्यये (तस्य-विकारस्य अत्यये) स्व-स्वभावं याति ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार मेघों से विकार को प्राप्त हुआ आकाश उन मेघों के विघटित हो जाने पर अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त होता है । उसीप्रकार विकारी कर्मो के द्वारा विकार को प्राप्त हुआ यह संसारी जीव उन विकारों के नाश होने पर अपने (मूल) स्वभाव को प्राप्त होता है ।