योगसार - संवर-अधिकार गाथा 251
From जैनकोष
मु्मुक्षु के लिए हेय तथा उपादेय तत्त्व -
अचेतनं तत: सर्वं परित्याज्यं मुमुक्षुणा ।
चेतनं सर्वदा सेव्यं स्वात्मस्थं संवरार्थिना ।।२५१।।
अन्वय :- तत: संवरार्थिना मु्मुक्षुणा सर्वं अचेतनं परित्याज्यं (च) स्व-आत्मस्थं चेतनं सर्वदा सेव्यं ।
सरलार्थ :- अत: जो मोक्ष का अभिलाषी एवं संवर का अर्थी है, उसके लिये समस्त अचेतन पदार्थ समूह त्यजनीय अर्थात् हेय है और अपना अनादि-अनंत चेतनरूप जीव तत्त्व सदा ही ध्येयरूप से सेवनीय/उपादेय है ।