योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 360
From जैनकोष
दीक्षागुरु एवं दीक्षार्थी का स्वरूप -
नाहं भवामि कस्यापि न किंचन ममापरम् ।
इत्यकिंचनतोपेतं निष्कषायं जितेन्द्रियम् ।।३६०।।
नमस्कृत्य गुरुं भक्त्या जिनमुद्रा-विभूषित: ।
जायते श्रमणोsसङ्गो विधाय व्रत-संग्रहम् ।।३६१।।
अन्वय :- अहं कस्यापि न भवामि, अपरं मम किंचन न अस्ति - इति अकिंचनता-उपेतं निष्कषायं जितेन्द्रियं गुरुं भक्त्या नमस्कृत्य व्रत संग्रहं विधाय (य:) असङ्ग: जिनमुद्रा-विभूषित: जायते (स:) श्रमण: (अस्ति) ।
सरलार्थ :- मैं किसी का नहीं हूँ और न कोई अन्य मेरा है - ऐसे अकिंचन/अपरिग्रह भाव से सहित निष्कषाय व जितेन्द्रिय गुरु को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके व्रतसमूह (अहिंसा महाव्रतादि अट्ठाईस मूलगुण) को धारण करके जो परिग्रह रहित होता हुआ, जो जिनमुद्रा से विभूषित होता है, वह (दीक्षार्थी) श्रमण है ।