योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 366
From जैनकोष
चारित्र में छेद होने पर उपाय -
प्रकृष्टं कुर्वत: साधोश्चारित्रं कायचेष्टया ।
यदि च्छेदस्तदा कार्या क्रियालोचन-पूर्विका ।।३६६।।
आश्रित्य व्यवहारज्ञं सूरिमालोच्य भक्तित: ।
दत्तस्तेन विधातव्यश्छेदश्छेदवता सदा ।।३६७।।
अन्वय :- प्रकृष्टं चारित्रं कुर्वत: साधो: यदि कायचेष्टया च्छेद: (जायते), तदा आलोचनपूि र्वका क्रिया कार्या । छेदवता (योगिना) व्यवहारज्ञं सूरिं आश्रित्य भक्तित: (स्वच्छेदं) आलोच्य तेन (सूरिणा) दत्त: छेद: सदा विधातव्य: ।
सरलार्थ :- उत्तम चारित्र का अनुष्ठान करते हुए साधु के यदि काय की चेष्टा से दोष लगे - अन्तरंग से दोष न लगे - तो उसे (उस दोष के निवारणार्थ) आलोचन-पूर्वक क्रिया करनी चाहिए । यदि अन्तरंग से दोष हो जाये तो उसके कारण योगी छेद को प्राप्त सदोष होता है, उसे किसी व्यवहारशास्त्रज्ञ गुरु के आश्रय में जाकर भक्तिपूर्वक अपने दोष की आलोचना करनी चाहिए और वह जो प्रायश्चित दे उसे ग्रहण करना चाहिए ।