योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 383
From जैनकोष
दृष्टान्तपूर्वक आत्मविराधना के फल का कथन -
तुङ्गारोहणत: पातो यथा तृप्तिर्विषान्नत: ।
यथानर्थोsवबोधादि-मलिनीकरणे तथा ।।३८३।।
अन्वय :- यथा तुङ्गारोहणत: पात: यथा विषान्नत: तृप्ति: अनर्थ: (कारक: भवति) तथा अवबोधादि-मलिनीकरणे (अनर्थ: भवति ) ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार पर्वत से नीचे गिरना तथा विषमिश्रित भोजन से तृप्ति का अनुभव करना - दोनों महा अनर्थकारी अर्थात् मरण का ही कारण है; उसीप्रकार सम्यग्ज्ञानादि को मलिन अर्थात् दूषित करना अत्यंत अनर्थकारी है अर्थात् दु:खरूप संसार में भटकने का कारण है ।