योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 280
From जैनकोष
आत्मज्ञान से ही आत्मा शुद्ध होता है -
आत्मावबोधतो नूनमात्मा शुद्ध्यति नान्यत: ।
अन्यत: शुद्धिमिच्छन्तो विपरीतदृशोsखिला: ।।२८०।।
अन्वय :- नूनं आत्मा आत्म-अवबोधत: शुद्ध्यति, अन्यत: न । अन्यत: शुद्धिं इच्छन्त: अखिला: विपरीतदृश: (सन्ति )।
सरलार्थ :- वास्तविक देखा जाय तो संसार-स्थित अशुद्ध आत्मा निज शुद्धात्मा को प्रत्यक्ष करने से ही/आत्मज्ञान/आत्मानुभव से ही पर्याय में शुद्ध/पवित्र/वीतरागमय हो जाता है; अन्य किसी साधन से नहीं । जो अज्ञानी जीव अन्य साधनों से अर्थात् व्रत, उपवास, पुण्य, पूजा, परोपकार, दान, तप, भक्ति, नाम-स्मरण आदि से आत्मा की शुद्धि चाहते हैं, वे सब जीव मिथ्यादृष्टि हैं ।