केवली 04
From जैनकोष
- कवलाहार व परीषह सम्बन्धी निर्देश व शंका—समाधान
- केवली को नोकर्माहार होता है
क्ष.सा./618 पडिसमयं दिव्वतमं जोगी णोकम्मदेहपडिबद्धं। समयपबद्धं बंधदि गलिदवसेसाउमेत्तठिदी।618।=सयोगी जिन हैं सो समय समय प्रति नोकर्म जो औदारिक तीहि सम्बन्धी जो समय प्रबद्ध ताकौ ग्रहण करै है। ताकी स्थिति आयु व्यतीत भए पीछे जेता अवशेष रहा तावन्मात्र जाननी। सो नोकर्म वर्गणा के ग्रहण ही का नाम आहार मार्गणा है ताका सद्भाव केवली कैं है।
- समुद्घात अवस्था में नोकर्माहार भी नहीं होता
ष.ख.1/1,1/सू.177/410 अणाहारा....केवलीणं वा समुग्घाद-गदाणं अजोगिकेवली....चेदि।177।
ध.2/1,1/669/5 कम्मग्गहणमत्थित्तं पडुच्च आहारित्तं किण्ण उच्चदि त्ति भणिदे ण उच्चदि; आहारस्स तिण्णिसमयविरहकालोवलद्धीदो।=1. समुद्घातगत केवलियों के सयोगकेवली और अयोगकेवली अनाहारक होते हैं। 2. प्रश्न–कार्माण काययोगी की अवस्था में भी कर्म वर्गणाओं के ग्रहण का अस्तित्व पाया जाता है, इस अपेक्षा कार्माण काययोगी जीवों को आहारक क्यों नहीं कहा जाता ? उत्तर–उन्हें आहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि कार्माण काययोग के समय नोकर्मणाओं के आहार का अधिक से अधिक तीन समय तक विरहकाल पाया जाता हैं।
क्ष.सा./619 णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ।=समुद्घात कौ प्राप्त केवली विषै दोय तौ प्रतर के समय अर एक लोक पूरण का समय इनि तीन समयानिविषै नोकर्म का आहार नियमतै नहीं है।
- केवली को कवलाहार नहीं होता
स.सि./8/1/375 केवली कवलाहारी...विपर्यय।=केवली को कवलाहारी मानना विपरीत मिथ्या-दर्शन है।
- मनुष्य होने के कारण केवली को भी कवलाहारी होना चाहिए
स्व.स्तो./मू./75 मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्, देवतास्वपि च देवता यत:। तेन नाथ ! परमासि देवता, श्रेयसे जिनवृष! प्रसीद न:।5।=हे नाथ ! चूँकि आप मानुषी प्रकृति को अतिक्रान्त कर गये हैं और देवताओं में भी देवता हैं, इसलिए आप उत्कृष्ट देवता हैं, अत: हे धर्म जिन ! आप हमारे कल्याण के लिए प्रसन्न होवें।75। (बो.पा./टी./34/101)
प्र.सा./ता.वृ./20/29/12 केवलिनो कवलाहारोऽस्ति मनुष्यत्वात् वर्तमानमनुष्यवत् । तदप्ययुक्तम् । तर्हि पूर्वकालपुरुषाणां सर्वज्ञत्वं नास्ति, रामरावणादिपुरुषाणां च विशेषसामर्थ्यं नास्ति वर्तमानमनुष्यवत् । न च तथा।=प्रश्न–केवली भगवान् के कवलाहार होता है, क्योंकि वह मनुष्य है, वर्तमान मनुष्य की भाँति? उत्तर–ऐसा कहना युक्त नहीं है। क्योंकि अन्यथा पूर्वकाल के पुरुषों में सर्वज्ञता भी नहीं है। अथवा राम रावणादि पुरुषों में विशेष सामर्थ्य नहीं है, वर्तमान मनुष्य की भाँति। ऐसा मानना पड़ेगा। परन्तु ऐसा है नहीं। (अत: केवली कवलाहारी नहीं है।)
- संयम की रक्षा के लिए भी केवली को कवलाहार की आवश्यकता थी
क.पा./1/1,1/52/5 किंतु तिरयणट्ठमिदि ण वोत्तुं जुत्तं, तत्थ पत्तासेसरुवम्मि तदसंभवादो। तं जहा, ण ताव णाणट्ठं भुंजइ, पत्तकेवलणाणभावादो। ण च केवलणाणादो अहियमण्णं पत्थणिज्जं णाणमत्थि जेण तदट्ठं केवली भुंजेज्ज। ण संजमट्ठं, पत्तजहाक्खादसंजमादो। ण ज्झाणट्ठं; विसईकयासेसतिहुवणस्स ज्झेयाभावादो। ण भुंजइ केवली भुत्तिकारणाभावादो त्ति सिद्धं।
क.पा.1/1,1/53/71/1 अह जइ सो भुंजइ तो बलाउ-सादुसरीरुवचयतेज-सुहट्ठं चेव भुंजइ संसारिजावो व्व, ण च एवं, समोहस्स केवलणाणाणुववत्तीदो। ण च अकेवलिवयणमागमो, रागदोसमोहकलंककिए ....सच्चाभावादो। आगमाभावे ण तिरयणपउत्ति त्ति तित्थवोच्छेदो तित्थस्स णिव्वाहवोहविसयीकयस्स उवलंभादो।=1. प्रश्न–यदि कहा जाय कि केवली रत्नत्रय के लिए भोजन करते हैं? उत्तर–यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि केवली जिन पूर्णरूप से आत्मस्वभाव को प्राप्त कर चुके हैं। इसलिए वे ‘रत्नत्रय अर्थात् ज्ञान, संयम और ध्यान के लिए भोजन करते हैं, यह बात संभव नहीं है। इसी का स्पष्टीकरण करते हैं–केवली जिन ज्ञान की प्राप्ति के लिए तो भोजन करते नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया है। तथा केवलज्ञान से बड़ा और कोई दूसरा ज्ञान प्राप्त करने योग्य नहीं है, जिससे उस ज्ञान की प्राप्ति के लिए भोजन करें। न ही संयम के लिए भोजन करते हैं क्योंकि उन्हें यथाख्यात संयम की प्राप्ति हो चुकी है। तथा ध्यान के लिए भी भोजन नहीं करते क्योंकि उन्होंने त्रिभुवन को जान लिया है, इसलिए इनके ध्यान करने योग्य कोई पदार्थ ही नहीं रहा है। अतएव भोजन करने का कोई कारण न रहने से केवली जिन भोजन नहीं करते हैं, यह सिद्ध हो जाता है। 2. यदि केवली जिन भोजन करते हैं तो संसारी जीवों के समान बल, आयु, स्वादिष्ट भोजन, शरीर की वृद्धि, तेज और सुख के लिए ही भोजन करते हैं ऐसा मानना पड़ेगा, परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर वह मोहयुक्त हो जायेंगे और इसलिए उनके केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। यदि कहा जाये कि जिनदेव को केवलज्ञान नहीं होता तो केवलज्ञान से रहित जीव के वचन ही आगम हो जावें ? यह भी ठीक नहीं क्योंकि ऐसा मानने पर राग, द्वेष, और मोह से कलंकित...जीवों के सत्यता का अभाव होने से वचन आगम नहीं कहे जायेंगे। आगम का अभाव होने से रत्नत्रय की प्रवृत्ति न होगी और तीर्थ का व्युच्छेद हो जायेगा। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि निर्बाध बोध के द्वारा ज्ञात तीर्थ की उपलब्धि बराबर होती है। न्यायकुमुद चन्द्रिका/पृ.852।
प्रमेयकमलमार्तण्ड/पृ.300 कवलाहारित्वे चास्य सरागत्वप्रसंग:। =केवली भगवान् को कवलाहारी मानने पर सरागत्व का प्रसंग प्राप्त होता है।
- औदारिक शरीर होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए
प्र.सा./ता.वृ./20/28/7 केवलिनां भुक्तिरस्ति, औदारिकशरीरसद्भावात् ।....अस्मदादिवत् । परिहारमाह—तद्भगवत: शरीरमौदारिकं न भवति किन्तु परमौदारिकम्–शुद्धस्फटिकसकाशं तेजोमूर्तिमयं वपु:। जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम् । =प्रश्न–केवली भगवान् भोजन करते हैं, औदारिक शरीर का सद्भाव होने से; हमारी भाँति? उत्तर–भगवान् का शरीर औदारिक नहीं होता अपितु परमौदारिक है। कहा भी है कि–‘दोषों के विनाश हो जाने से शुद्ध स्फटिक के सदृश सात धातु से रहित तेज मूर्तिमय शरीर हो जाता है।
- आहारक होने के कारण केवली का कवलाहार होना चाहिए
ध./1/1,1,173/409/10 अत्र कवललेपोष्ममन:कर्माहारान् परित्यज्यनोकर्माहारो ग्राह्य:, अन्यथाहारकालविरहाभ्यां सहविरोधात्=आहारक मार्गणा में आहार शब्द से कवलाहार, लेपाहार...आदि को छोड़कर नोकर्माहार का ही ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा आहारकाल और विरह के साथ विरोध आता है।
प्र.सा./20/28/21 मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवलिपर्यन्तास्त्रयोदशगुणस्थानवर्तिनो जीवा आहारका भवन्तीत्याहारकमार्गणायामागमे भणितमास्ते, तत: कारणात् केवलिनामाहारोऽस्तीति। तदप्ययुक्तम् । परिहार...यद्यपि षट्प्रकार आहारो भवति तथापि नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वमवबोद्धव्यम् । न च कवलाहारापेक्षया। तथाहि–सूक्ष्मा: सुरसा: सुगन्धा अन्यमनुजानामसंभविन: कवलाहारं विनापि किंचिदूनपूर्वकोटिपर्यन्तं शरीरस्थितिहेतव: सप्तधातुरहितपरमौदारिकशरीरनोकर्माहारयोग्या लाभान्तरायकर्मनिरवशेषक्षयात् प्रतिक्षणं पुद्गला आस्रवन्तीति...ततो ज्ञायते नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वम् । अथ मतम्–भवदीयकल्पनया आहारानाहारकत्वं नोकर्माहारापेक्षया, न च कवलाहारापेक्षया चेति कथं ज्ञायते। नैवम् । ‘‘एकं द्वौ त्रीन् वानाहारक:’’ इति तत्त्वार्थे कथितमास्ते। अस्य सूत्रस्यार्थ: कथ्यते–भवान्तरगमनकाले विग्रहगतौ शरीराभावे सति नूतनशरीरधारणार्थं त्रयाणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलपिण्डग्रहणं नोकर्माहार उच्यते। स च विग्रहगतौ कर्माहारे विद्यमानेऽप्येकद्वित्रिसमयपर्यन्तं नास्ति। ततो नोकर्माहारापेक्षयाहारानाहारकत्वमागमे ज्ञायते। यदि पुन: कवलाहारापेक्षया तर्हि भोजनकालं विहाय सर्वदैवानाहारक एव, समयत्रयनियमो न घटते।=प्रश्न–मिथ्यादृष्टि आदि सयोग केवली पर्यन्त तेरह गुणस्थानवर्ती जीव आहारक होते हैं ऐसा आहारक मार्गणा में आगम में कहा है। इसलिए केवली भगवान् के आहार होता है? उत्तर–ऐसा कहना युक्त नहीं है। इसका परिहार करते हैं। यद्यपि छह प्रकार का आहार होता है परन्तु नोकर्माहार की अपेक्षा केवली को आहारक जानना चाहिए कवलाहार की अपेक्षा नहीं। सो ऐसे हैं–लाभान्तराय कर्म का निरवशेष विनाश हो जाने के कारण सप्तधातुरहित परमौदारिक शरीर के नोकर्माहार के योग्य शरीर की स्थिति के हेतुभूत अन्य मनुष्यों को जो असंभव हैं ऐसे पुद्गल किंचिदून पूर्वकोटि पर्यन्त प्रतिक्षण आते रहते हैं, इसलिए जाना जाता है कि केवली भगवान् को नोकर्माहार की अपेक्षा आहारकत्व है। प्रश्न–यह आपकी अपनी कल्पना है कि आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है कवलाहार की अपेक्षा नहीं। कैसे जाना जाता है? उत्तर–ऐसा नहीं है। एक दो अथवा तीन समय तक अनाहारक होता है’ ऐसा तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है। इस सूत्र का अर्थ कहते हैं–एक भव से दूसरे भव में गमन के समय विग्रहगति में शरीर का अभाव होने पर नवीन शरीर को धारण करने के लिए तीन शरीरों की पर्याप्ति के योग्य पुद्गल पिण्ड को ग्रहण करना नोकर्माहार कहलाता है। वह कर्माहार विग्रहगति में विद्यमान होने पर भी एक, दो, तीन समय पर्यन्त नहीं होता है। इसलिए आगम में आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है ऐसा जाना जाता है। यदि कवलाहार की अपेक्षा हो तो भोजनकाल को छोड़कर सर्वदा अनाहारक ही होवे, तीन समय का नियम घटित न होवे। (बो.पा./टी./34/101/15)।
- परिषहों का सद्भाव होने से केवली को कवलाहारी होना चाहिए
ध.12/4,2,7,2/24/7 असादं वेदयमाणस्स सजोगिभयवंतस्स भुक्खातिसादीहि एक्कारसपरीसहेहि बाहिज्जमाणस्स कधं ण भुत्ती होज्ज। ण एस दोसो, पाणोयणेसु जादतण्हाए स समोहस्स मरणभएण भुंजंतस्स परीसहेहि पराजियस्स केवलित्तविरोहादो। =प्रश्न–असाता वेदनीय का वेदन करने वाले तथा क्षुधा तृषादि ग्यारह परिषहों द्वारा बाधा को प्राप्त हुए ऐसे सयोग केवली भगवान् के भोजन का ग्रहण कैसे नहीं होगा? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो भोजन पान में उत्पन्न हुई इच्छा से मोह युक्त है तथा मरण के भय से जो भोजन करता है, अतएव परीषहों से जो पराजित हुआ है ऐसे जीव के केवली होने में विरोध है।
प्र.सा./ता.वृ./20/28/12 यदि पुनर्मोहाभावेऽपि क्षुधादिपरिषहं जनयति तर्हि वधरोगादिपरिषहमपि जनयतु न च तथा। तदपि कस्मात् । ‘‘भुक्तयुपसर्गाभावात्’’ इति वचनात् अन्यदपि दूषणमस्ति। यदि क्षुधाबाधास्ति तर्हि क्षुधाक्षीणशक्तेरनन्तवीर्यं नास्ति। तथैव दु:खितस्यानन्तसुखमपि नास्ति। जिह्वेन्द्रियपरिच्छित्तिरूपमतिज्ञानपरिणतस्य केवलज्ञानमपि न संभवति।=यदि केवली भगवान् को मोह का अभाव होने पर भी क्षुधादि परिषह होती हैं, तो वध तथा रोगादि परिषह भी होनी चाहिए। परन्तु ये होती नहीं हैं, वह भी कैसे ‘‘भुक्ति और उपसर्ग का अभाव है’’ इस वचन से सिद्ध होता है। और भी दूषण लगता है। यदि केवली भगवान् को क्षुधा हो तो क्षुधा की बाधा से शक्ति क्षीण हो जाने से अनन्त वीर्यपना न रहेगा, उसी से दुःखी होकर अनन्त सुख भी नहीं बनेगा। तथा जिह्वा इन्द्रिय की परिच्छित्तिरूप मतिज्ञान से परिणत उन केवली भगवान् को केवलज्ञान भी न बनेगा। (बो.पा./टी./34/101/22)।
- केवली भगवान् को क्षुधादि परिषह नहीं होती
ति.प./1/59 चउविहउवसग्गेहिं णिच्चविमुक्को कसायपरिहीणो। छुहपहुदिपरिसहेहिं परिचत्तो रायदोसेंहि।51।=देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतनकृत चार प्रकार के उपसर्गों से सदा विमुक्त हैं, कषायों से रहित हैं, क्षुधादिक बाईस परीषहों व रागद्वेष से परित्यक्त हैं।
- केवली को परिषह कहना उपचार है
स.सि./9/11/429/8 मोहनीयोदयसहायाभावात्क्षुदादिवेदनाभावे परिषहव्यपदेशो न युक्त:। सत्यमेवमेतत्–वेदनाभावेऽपि द्रव्यकर्मसद्भावापेक्षया परिषहोपचार: क्रियते।=प्रश्न–मोहनीय के उदय की सहायता न होने से क्षुधादि वेदना के न होने पर परिषह संज्ञायुक्त नहीं है? उत्तर–यह कथन सत्य ही है तथापि वेदना का अभाव होने पर द्रव्यकर्म के सद्भाव की अपेक्षा से यहाँ परीषहों का उपचार किया जाता है। (रा.वा./9/11/1/614/1)।
- असाता वेदनीय कर्म के उदय के कारण केवली को क्षुधादि परिषह होनी चाहिए
- घाति व मोहनीय कर्म की सहायता न होने से असाता अपना कार्य करने को समर्थ नहीं है—
रा.वा./9/11/1/613/27 स्यान्मतम्-घातिकर्मप्रक्षयान्निमित्तोपरमे सति नाग्न्यरतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनालाभसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानदर्शनानि मा भृवन्, अमी पुनर्वेदनीयाश्रया: खलु परीषहा: प्राप्नुवन्ति भगवति जिने इति; तन्न; किं कारणम् । घातिकर्मोदयसहायाभावात् तत्सामर्थ्यविरहात् । यथा विषद्रव्यं मन्त्रौषधिबलादुपक्षीणमारणशक्तिकमुपयुज्यमानं न मरणाय कल्प्यते तथा ध्यानानलनिर्दग्धघातिकर्मेन्धनस्यानन्ताप्रतिहतज्ञानादिचतुष्टयस्यान्तरायाभावान्निरन्तरमुपचीयमानशुभपुद्गलसंततेर्वेदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनोत्पादनं प्रत्यसमर्थमिति क्षुधाद्यभाव: तत्सद्भावोपचाराद्ध्यानकल्पनवत् ।=प्रश्न–केवली में घातिया कर्म का नाश होने से निमित्त के हट जाने के कारण नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, अलाभ, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन परीषहें न हों, पर वेदनीय कर्म का उदय होने से तदाश्रित परीषहें तो होनी ही चाहिए? उत्तर–घातिया कर्मोदय रूपी सहायक के अभाव से अन्य कर्मों की सामर्थ्य नष्ट हो जाती है। जैसे मन्त्र औषधि के प्रयोग से जिसकी मारण शक्ति उपक्षीण हो गयी है ऐसे विष को खाने पर भी मरण नहीं होता, उसी तरह ध्यानाग्नि के द्वारा घाति कर्मेन्धन के जल जाने पर अनन्तचतुष्टय के स्वामी केवली के अन्तराय का अभाव हो जाने से प्रतिक्षण शुभकर्म के पुद्गलों का संचय होते रहने से प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। इसलिए केवली में क्षुधादि नहीं होते। (ध.13/5,4,24/53/1); (ध.12/4,2,7,2/24/11); (क.पा./1/1,1/51/69/1); (चा.सा./131/2); (प्र.सा./ता.वृ./20/28/10)।
गो.क./मू. व जी.प्र./273 णट्ठा य रायदोसा इंदियणाणं च केवलिम्हि जदो। तेण दु सादासादजसुहदुक्खं णत्थि इंदियजं।273। सहकारिकारणमोहनीयाभावे विद्यमानोऽपि न स्वकार्यकारीत्यर्थ:।=जातैं सयोग केवलीकैं घातिकर्म का नाश भया है तातैं राग व द्वेष को कारणभूत क्रोधादि कषायों का निर्मूल नाश भया है। बहुरि युगपत् सकल प्रकाशी केवलज्ञान विषैं क्षयोपशमरूप परोक्ष मतिज्ञान और श्रुतज्ञान न संभवै तातैं इन्द्रिय जनित ज्ञान नष्ट भया तिस कारण करि केवलिकैं साता असाता वेदनीय के उदयतैं सुख दुख नाहीं हैं जातैं सुख-दुख इन्द्रिय जनित हैं बहुरि वेदनीय का सहकारी कारण मोहनीय का अभाव भया है तातैं वेदनीय का उदय होत संतै भी अपना सुख-दुख देने रूप कार्य करने कौं समर्थ नाहीं। (क्ष.सा./मू./616/728)
प्रमेयकमलमार्तण्ड/पृ.303 तथा असातादि वेदनीयं विद्यमानोदयमपि, असति मोहनीये, नि:सामर्थ्यत्वान्न क्षुद्दु:खकरणे प्रभु: सामग्रीत: कार्योत्पत्तिप्रसिद्ध:। =असातादि वेदनीय के विद्यमान होते हुए भी, मोहनीय के अभाव में असमर्थ होने से, वे केवली भगवान् को क्षुधा सम्बन्धी दुःख को करने में असमर्थ हैं।
- साता वेदनीय के सहवर्तीपने से असाता की शक्ति अनन्तगुणी क्षीण हो जाती है
रा.वा./9/11/1/613/31 निरन्तरमुपचीयमानशुभपुद्गलसंततेर्वेदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनं प्रत्यसमर्थमिति।=अन्तरायकर्म का अभाव होने से प्रतिक्षण शुभकर्मपुद्गलों का संचय होते रहने से प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। (चा.सा./131/3)
ध.2/1,1/433/2 असादावेदणीयस्स उदीरणाभावादो आहारसण्णा अप्पमत्तसंजदस्स णत्थि। कारणभूत-कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भयमेहुण-परिग्गहसण्णा अत्थि।=असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव हो जाने से अप्रमत्त संयत के आहार संज्ञा नहीं होती है। किन्तु भय आदि संज्ञाओं के कारणभूत कर्मों का उदय सम्भव है, इसलिए उपचार से भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाएँ हैं।
प्र.सा./ता.वृ./20/28/16 असद्वेद्योदयापेक्षया सद्वेद्योदयोऽनन्तगुणोऽस्ति। तत: कारणात् शर्कराराशिमध्ये निम्बकणिकावदसद्वेद्योदयो विद्यमानोऽपि न ज्ञायते। तथैवान्यदपि बाधकमस्ति—यथा प्रमत्तसंयतादि तपोधनानां वेदोदये विद्यमानेऽपि मन्दमोहोदयत्वादखण्डबह्मचारीणां त्रिपरीषहबाधा नास्ति। यथैव च नवग्रेवेयकाद्यहमिन्द्रदेवानां वेदोदये विद्यमानेऽपि मन्दमोहोदयेन स्त्रीविषयबाधा नास्ति, तथा भगवत्यसद्वेद्योदये विद्यमानेऽपि निरवशेषमोहाभावात् क्षुधाबाधा नास्ति।=और भी कारण है, कि केवली (भगवान् के) असाता वेदनीय के उदय की अपेक्षा साता वेदनीय का उदय अनन्तगुणा है। इस कारण खण्ड (चीनी) की बड़ी राशि के बीच में नीम की एक कणिका की भाँति असातावेदनीय का उदय होने पर भी नहीं जाना जाता है। और दूसरी एक और बाधा है—जैसे अप्रमत्तसंयत आदि तपोधनों के वेद का उदय होने पर भी मोह का मन्द उदय होने से उन अखण्ड ब्रह्मचारियों के स्त्रीपरीषहरूप बाधा नहीं होती, और जिस प्रकार नवेग्रेवेयकादि में अहमिन्द्रदेवों के वेद का उदय विद्यमान होने पर भी मोह के मन्द उदय से स्त्री-विषयक बाधा नहीं होती, उसी प्रकार भगवान् के असातावेदनीय का उदय विद्यमान होने पर भी निरवशेष मोह का अभाव होने से क्षुधा की बाधा नहीं होती। (और भी–देखें केवली - 4.12)
- असाता भी सातारूप परिणमन कर जाता है
गो.क./मू. व जी.प्र./274/403 समयट्ठिदिगो बंधो सादस्सुदयप्पिगो जदो तस्स। तेण असादस्सुदओ सादसरूवेण परिणदि।274। यतस्तस्य केवलिन: सातवेदनीयस्य बन्ध: समयस्थितिक: तत: उदयात्मक एव स्यात् तेन तत्रासातोदय: सातास्वरूपेण परिणमति कुत: विशिष्टशुद्धे तस्मिन् असातस्य अनन्तगुणहीनशक्तित्वसहायरहितत्वाभ्यां अव्यक्तोदयत्वात् । बध्यमानसातस्य च अनन्तगुणानुभागत्वात् तथात्वस्यावश्यंभावात् । न च तत्र सातोदयोऽसातस्वरूपेण परिणमतीति शक्यते वक्तुं द्विसमयस्थितिकत्वप्रसङ्गात् अन्यथा असातस्यैव बन्ध: प्रसज्यते।=जातैं तिस केवलीकैं साता वेदनीय का बन्ध एक समय स्थितिकौ लियें है तातैं उदय स्वरूप ही है तातैं केवलीकै असाता वेदनीय का उदय सातारूप होइकरि परिनमैं है। काहैं तै? केवली के विषैं विशुद्धता विशेष है तातैं असातावेदनीय की अनुभाग शक्ति अनन्तगुणी हीन भई है अर मोह का सहाय था ताका अभाव भया है तातैं असातावेदनीय का अप्रगट सूक्ष्म उदय है। बहुरि जो सातावेदनीय बन्धै है ताका अनुभाग अनन्तगुणा है जातैं, साता वेदनीय की स्थिति की अधिकता तो संक्लेश तातैं हो है अनुभाग की अधिकता विशुद्धतातै हो है सो केवली के विशुद्धता विशेष है तातैं स्थिति का तौ अभाव है बन्ध है सो उदयरूप परिणमता ही हो है अर ताकैं सातावेदनीय का अनुभाग अनन्तगुणा हो है ताहीतैं जो असाता का भी उदय है सो सातारूप होइकरि परिनमै है। कोऊ कहै कि साता असातारूप होइ परिनमै है ऐसे क्यों न कहों? ताका उत्तर–ताका स्थितिबन्ध दोय समय का न ठहरे वा अन्य प्रकार कहैं असाता ही का बन्ध होइ तातैं तैं कह्या कहना संभवे नाहीं।
- घाति व मोहनीय कर्म की सहायता न होने से असाता अपना कार्य करने को समर्थ नहीं है—
- निष्फल होने के कारण असाता का उदय ही नहीं कहना चाहिए
ध.13/4,2,7,2/24/12 णिप्फलस्स परमाणुपुंजस्स समयं पडि परिसयंतस्स कधं उदयववएसो। ण, जीव-कम्मविवेगमेत्ताफलं दट्ठूण उदयस्स फलत्तब्भुवगमादो। जदि एवं तो असादवेदणीयोदयकाले सादावेदणीयस्स उदओ णत्थि, असादावेदणीयस्सेव उदओ अत्थि त्ति ण वत्तव्वं, सगफलाणुप्पायणेण दोण्णं पि सरिसत्तुवलंभादो। ण, असादपरमाणूणं व सादपरमाणूणं सगसरूवेण णिज्जराभावादो। सादपरमाणओ असादसरूवेण विणस्संतावत्थाए परिणमिदूण विणस्संते दट्ठूण सादावेदणीयस्स उदओ णत्थि त्ति वुच्चदे। ण च असादावेदणीयस्स एसो कमो अत्थि, (असाद)-परमाणूणं सगसरूवेणेव णिज्जरूवलंभादो। तम्हा दुक्खरूवफलाभावे वि असादावेदणीयस्स उदयभावो जुज्जदि त्ति सिद्धं।=प्रश्न—बिना फल दिये ही प्रतिसमय निर्जीर्ण होने वाले परमाणु समूह की उदय संज्ञा कैसे हो सकती है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, जीव व कर्म के विवेकमात्र फल को देखकर उदय को फलरूप से स्वीकार किया गया है। प्रश्न—यदि ऐसा है तो असातावेदनीय के उदय काल में साता वेदनीय का उदय नहीं होता, केवल असाता वेदनीय का ही उदय रहता है ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि अपने फल को नहीं उत्पन्न करने की अपेक्षा दोनों में ही समानता पायी जाती है। उत्तर—नहीं, क्योंकि, तब असातावेदनीय के परमाणुओं के समान सातावेदनीय के परमाणुओं की अपने रूप से निर्जरा नहीं होती। किन्तु विनाश होने की अवस्था में असाता रूप से परिणमकर उनका विनाश होता है यह देखकर सातावेदनीय का उदय नहीं हैं, ऐसा कहा जाता है। परन्तु असाता वेदनीय का यह क्रम नहीं है, क्योंकि तब असाता के परमाणुओं की अपने रूप से निर्जरा पायी जाती है। इस कारण दुःखरूप फल के अभाव में भी असातावेदनीय का उदय मानना युक्तियुक्त है, यह सिद्ध होता है।
ध.13/5,4,24/53/5 जदि असादावेदणीयं णिप्फलं चेव, तो उदओ अत्थि त्ति किमिदि उच्चदे। ण, भूदपुव्वणयं पडुच्च तदुत्तीदो। किंच ण सहकारिकारणघादिकम्माभावेणेव सेसकम्माणिव्व पत्तणिव्वीयभावमसादावेदणीयं, किंतु सादावेदणीयबंधेण उदयसरूवेण उदयागदउक्कस्साणुभागसादावेदणीयसहकारिकारणेण पडिहयउदयत्तादो वि। ण च बंधे उदयसरूवे संते सादावेदणीयगोवुच्छा थिडक्कसंकमेण असादावेदणीयं गच्छदि, विरोहादो। थिउसंक्कमाभावे सादासादाणमजोगिचरिमसमए संतवोच्छेदो पसज्जदि त्ति भणिदे—ण, वोच्छिण्णसादबंधम्मि अजोगिम्हि सादोदयणियमाभावादो। सादावेदणीयस्स उदयकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो फिट्टिदूण देसूणपुव्वकोडिमेत्तो होदि चे—ण, अजोगिकेवलिं मोत्तूण अण्णत्थ उदयकालस्स अंतोमुहुत्तणियमब्भुवगमादो।....सादावेदणीयस्स बंधो अत्थि त्ति चे ण, तस्स ट्ठिदि-अणुभागबंधाभावेण...बंधववएसविरोहादो।=प्रश्न—यदि असातावेदनीय कर्म निष्फल ही है तो वहाँ उसका उदय है, ऐसा क्यों कहा जाता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, भूतपूर्व नय की अपेक्षा से वैसा कहा जाता है। दूसरे...वह न केवल निर्बीज भाव को प्राप्त हुआ है किन्तु उदयस्वरूप सातावदेनीय का बन्ध होने से और उदयागत उत्कृष्ट अनुभाग युक्त सातावेदनीय रूप सहकारी कारण होने से उसका उदय भी प्रतिहत हो जाता है। प्रश्न—बन्ध के उदय स्वरूप रहते हुए साता वेदनीयकर्म की गोपुच्छा स्तिबुक संक्रमण के द्वारा असाता वेदनीय को प्राप्त होती होगी? उत्तर—ऐसा मानने में विरोध आता है। प्रश्न—यदि यहाँ स्तिबुक संक्रमण का अभाव मानते हैं, तो साता और असाता को सत्त्व व्युच्छित्ति अयोगी के अन्तिमसमय में होने का प्रसंग आता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि साता के बन्ध की व्युच्छित्ति हो जाने पर अयोगी गुणस्थान में साता के उदय का कोई नियम नहीं है। प्रश्न—इस तरह तो सातावेदनीय का उदयकाल अन्तर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण प्राप्त होता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि अयोगिकेवली गुणस्थान को छोड़कर अन्यत्र उदयकाल का अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है।...। प्रश्न—वहाँ सातावेदनीय का बन्ध है? उत्तर—नहीं, क्योंकि स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के बिना....सातावेदनीय कर्म को ‘बंध’ संज्ञा देने में विरोध आता है।
- केवली को नोकर्माहार होता है