योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 530
From जैनकोष
आत्मा के अनुभव की प्रेरणा -
विषयानुभवं बाह्यं स्वात्मानुभवमान्तरम् ।
विज्ञाय प्रथमं हित्वा स्थेयमन्यत्र सर्वत: ।।५३१।।
अन्वय : - विषयानुभवं बाह्यं (भवति)। स्व-आत्मानुभवं आन्तरं (भवति । एतत्) विज्ञाय प्रथमं (बाह्यं विषयानुभवं) हित्वा अन्यत्र (स्व-आत्मानुभवं आन्तरं) सर्वत: स्थेयम् ।
सरलार्थ :- स्पर्श-रसादि पंचेंद्रिय विषयों का जो अनुभव है, वह बाह्य अर्थात् दु:खरूप तथा विनाशीक है और निज शुद्ध आत्मा का जो अनुभव है, वह अंतरंग अर्थात् वास्तविक, सुखरूप तथा अविनाशी/शाश्वत है । इस बात को अच्छी तरह से जानकर दु:खद बाह्य-विषयानुभव को छोड़कर निज शुद्धात्मानुभवरूप अंतरंग में पूर्णत: स्थिर/मग्न होना चाहिए ।