निदान
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
- निदान सामान्य का लक्षण
स.सि./7/37/372/7 भोगाकाङ्क्षया नियतं दीयते चित्तं तस्मिस्तेनेति वा निदानम् ।=भोगाकांक्षा से जिसमें या जिसके कारण चित्त नियम से दिया जाता है वह निदान है। (रा.वा./7/37/6/559/9); (द्र.सं./टी./42/184/1)।
स.सि./7/18/356/9 निदानं विषयभोगाकाङ्क्षा। =भोगों की लालसा निदान शल्य है। (रा.वा./7/18/2/545/34); (12/4,2,8,9/284/9)। - निदान के भेद
भ.आ./मू./1215/1215 तत्थ णिदाणं तिविहं होइ पसत्थापसत्थभोगकदं।1215। =निदान शल्य के तीन भेद हैं–प्रशस्त, अप्रशस्त व भोगकृत। (अ.ग.श्रा./7/20)। - प्रशस्तादि निदानों के लक्षण
भ.आ./मू./1216-1219/1215 संजमहेदुं पुरिसत्तसत्तबलविरियसंघदणबुद्धी सावअबंधुकुलादीणि णिदाणं होदि हु पसत्थं।1216। माणेण जाइकुलरूवमादि आइरियगणधरजिणत्तं। सोभग्गाणादेयं पत्थंतो अप्पसत्थं तु।1217। कुद्धो वि अप्पसत्थं मरणे पच्छेइ परवधादीयं। जह उग्गसेणघादे णिदाणं वसिट्ठेण।1218। देविगमणिसभोगो। णारिस्सरसिट्ठिसत्थवाहत्तं। केसवचक्कधरत्तं पच्छंतो होदि भोगकदं।1219। =पौरुष, शारीरिकबल, वीर्यान्तरायकर्म का क्षयोपशम होने से उत्पन्न होने वाला दृढ़ परिणाम, वज्रवृषभनाराचादिकसंहनन, ये सब संयमसाधक सामग्री मेरे को प्राप्त हों ऐसी मन की एकाग्रता होती है, उसको प्रशस्त निदान कहते हैं। धनिककुल में, बंधुओं के कुल में उत्पन्न होने का निदान करना प्रशस्त निदान है।1216। अभिमान के वश होकर उत्तम मातृवंश, उत्तम पितृवंश की अभिलाषा करना, आचार्य पदवी, गणधरपद, तीर्थंकरपद, सौभाग्य, आज्ञा और सुन्दरपना इनकी प्रार्थना करना सब अप्रशस्त निदान है। क्योंकि, मानकषाय से दूषित होकर उपर्युक्त अवस्था की अभिलाषा की जाती है।1217। क्रुद्ध होकर मरणसमय में शत्रुवधादिक की इच्छा करना यह भी अप्रशस्त निदान है।1218। देव मनुष्यों में प्राप्त होने वाले भोगों की अभिलाषा करना भोगकृत निदान है। स्त्रीपना, धनिकपना, श्रेष्ठिपद, सार्थवाहपना, केशवपद, सकलचक्रवर्तीपना, इनकी भोगों के लिए अभिलाषा करना यह भोगनिदान है।1219। (ज्ञा./25/34-36); (अ.ग.श्रा./7/21-25)। - प्रशस्ताप्रशस्त निदान की इष्टता अनिष्टता
भ.आ./मू./1223-1226 कोढी संतो लद्धूण डहइ उच्छं रसायणं एसो। सो सामण्णं णासेइ भोगहेदुं णिदाणेण।1223। पुरिसत्तादि णिदाणं पि मोक्खकामा मुणी ण इच्छंति। जं पुरिसत्ताइमओ भावी भवमओ य संसारो।1224। दुक्खक्खयकम्मक्खयसमाधिमरणं च बोहिलाहो य। एयं पत्थेयव्वं ण पच्छणीयं तओ अण्णं।1225। पुरिसत्तादीणि पुणो संजमलाभो य होइ परलोए। आराधयस्स णियमा तत्थमकदे णिदाणे वि।1226। =जैसे कोई कुष्ठरोगी मनुष्य कुष्ठरोग का नाशक रसायन पाकर उसको जलाता है, वैसे ही निदान करने वाला मनुष्य सर्व दु:खरूपी रोग के नाशक संयम का भोगकृत निदान के नाश करता है।1223। संयम के कारणभूत पुरुषत्व, संहनन आदिरूप (प्रशस्त) निदान भी मुमुक्षु मुनि नहीं करते क्योंकि पुरुषत्वादि पर्याय भी भव ही हैं और भव संसार है।1224। मेरे दु:खों का नाश हो, मेरे कर्मों का नाश हो, मेरे समाधिमरण हो, मुझे रत्नत्रयरूप बोधि की प्राप्ति हो इन बातों की प्रार्थना करनी चाहिए। (क्योंकि ये मोक्ष के कारणभूत प्रशस्त निदान हैं)।1225। जिसने रत्नत्रय की आराधना की है उसको निदान न करने पर भी अन्य जन्म में निश्चय से पुरुषत्व आदि व संयम आदि की प्राप्ति होती है।1226। (अ.ग.श्रा./23-25)।
पुराणकोष से
चार प्रकार के आर्तघ्यान में तीसरे प्रकार का आर्त्तध्यान । यह भोगों की आकांक्षा से होता है दूसरे पुरुषों की भोगोपभोग की सामग्री देखने से संक्लिष्ट चित्त वाले जीव के यह ध्यान होता है । महापुराण 21.33
(2) सल्लेखना के पाँच अतिचारों में तीसरा अतिचार । इसमें आगामी भोगों की आकांक्षा होती है । हरिवंशपुराण 58.184