पर्याय सामान्य निर्देश
From जैनकोष
- पर्याय सामान्य निर्देश
- गुण से पृथक् पर्याय निर्देश का कारण
न्या.दी./3/§78/121/4 यद्यपि सामान्यविशेषौ पर्यायौ तथापि सङ्केतग्रहणनिबन्धनत्वाच्छब्दव्यवहारविषयत्वाच्चागम-प्रस्तावेतयोः पृथग्निर्देशः। = यद्यपि सामान्य और विशेष भी पर्याय हैं, और पर्यायों के कथन से उनका भी कथन हो जाता है - उनका पृथक् निर्देश (कथन) करने की आवश्यकता नहीं है तथापि संकेताज्ञान में कारण होने से और जुदा-जुदा शब्द व्यवहार होने से इस आगम प्रस्ताव में (आगम प्रमाण के निरूपण में) सामान्य विशेष का पर्यायों से पृथक् निरूपण किया है।
- पर्याय द्रव्य के व्यतिरेकी अंश हैं
स.सि./5/35/309/5 व्यतिरेकिणः पर्यायाः। = पर्याय व्यतिरेकी होती है (न.च.श्रुत./पृ.57); (पं.का./त.प्र./5); (प्र.सा./ता.वृ./93/121/15); (प.प्र./टी./1/57); (पं.ध./पू. 165)।
प्र.सा./त.प्र./80, 95 अन्वयव्यतिरेकाः पर्यायाः। 80। पर्याया आयत-विशेषाः। 95। = अन्वय व्यतिरेक वे पर्याय हैं। 80। पर्याय आयत विशेष है। 95। (प्र.सा./त.प्र./93)।
पं.का./त.प्र./5 पदार्थास्तेषामवयवा अपि प्रदेशाख्याः परस्परव्यतिरेकित्वात्पर्याया उच्यन्ते। = पदार्थों के जो अवयव हैं वे भी परस्पर व्यतिरेकवाले होने से पर्यायें कहलाती हैं।
अध्यात्मकमल मार्तण्ड। वीरसेवा मन्दिर/2/9 व्यतिरेकिणो ह्यनि-त्यास्तत्काले द्रव्यतन्मयाश्चापि। ते पर्याय द्विविधा द्रव्यावस्थाविशेषधर्मांशा। 9। = जो व्यतिरकी हैं और अनित्य हैं तथा अपने काल में द्रव्य के साथ तन्मय रहती हैं ऐसी द्रव्य की अवस्था विशेष, या धर्म, या अंश पर्याय कहलाती है। 9।
- पर्याय द्रव्य के क्रमभावी अंश हैं
आ.प./6 क्रमवर्तिनः पर्यायाः। = पर्याय एक के पश्चात् दूसरी, इस प्रकार क्रमपूर्वक होती है। इसलिए पर्याय क्रमवर्ती कही जाती है। (स्या.मं./22/267/22)।
प.प्र./मू./57 कम-भुव पज्जउ वुत्तु। 57। = द्रव्य को अनेक रूप परिणति क्रम से हो अर्थात् अनित्यरूप समय-समय उपजे, विनशे, वह पर्याय कही जाती है। (प्र.सा./त.प्र./10); (नि.सा./ता.वृ./107); (पं.का./ता.वृ./5/14/9)।
प.मु./4/8 एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया आत्मनि हर्षविषादादिवत्। = एक ही द्रव्य में क्रम से होनेवाले परिणामों को पर्याय कहते हैं। जैसे एक ही आत्मा में हर्ष और विषाद।
- पर्याय स्वतन्त्र हैं
पं.ध./पू./89, 117 वस्त्वस्ति स्वतः सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामि। 89। अपि नित्याः प्रतिसमयं विनापि यत्नं हि परिणमन्ति गुणाः। 117। = जैसे वस्तु स्वतःसिद्ध है वैसे ही वह स्वतः परिणमनशील भी है। 89। गुण नित्य हैं तो भी वे निश्चय करके स्वभाव से ही प्रतिसमय परिणमन करते रहते हैं। 117।
- पर्याय व क्रिया में अन्तर
रा.वा./5/22/21/4/81/19 भावो द्विविधः - परिस्पन्दात्मकः अपरिस्पन्दात्मकश्च। तत्र परिस्पन्दात्मकः क्रियेत्याख्यायते, इतरः परिणामः। = भाव दो प्रकार के होते हैं - परिस्पन्दात्मक व अपरिस्पन्दात्मक। परिस्पन्द क्रिया है तथा अन्य अर्थात् अपरिस्पन्द परिणाम अर्थात् पर्याय है।
- पर्याय निर्देश का प्रयोजन
पं.का./ता.वृ./19/4/5 अत्र पर्यायरूपेणानित्यत्वेऽपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेनाविनश्वरमनन्तज्ञानादिरूपशुद्ध-जीवास्तिकायाभिधानं रागादिपरिहारेणोपादेयरूपेण भावनीयमिति भावार्थः। = पर्यायरूप से अनित्य होने पर भी शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से अविनश्वर अनन्त ज्ञानादि रूप शुद्ध जीवास्तिकाय नाम का शुद्धात्म द्रव्य है उसको रागादि के परिहार के द्वारा उपादेय रूप से भाना चाहिए, ऐसा भावार्थ है।
- गुण से पृथक् पर्याय निर्देश का कारण