प्रतिज्ञा संन्यास
From जैनकोष
(श्लो.वा./4/मू.व टी./5/2/5/311 पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्थपनयनं प्रतिज्ञासंन्यासः ।5। अनित्यः शब्दः ऐन्द्रियकत्वादित्युक्ते परो ब्रूयात्सामान्यमैन्द्रियकं न चानित्यमेवं शब्दोऽप्यैन्द्रिय को न चानित्य इति । एवं प्रतिषिद्धे पक्षे यदि ब्रूयात् कः पुनराह अनित्यः शब्द इति । सोऽयं प्रतिज्ञातार्थनिह्नवः प्रतिज्ञासंन्यास इति । = पक्ष के निषेध होने पर प्रतिज्ञात ‘माने हुए अर्थ का छोड़ देना’ प्रतिज्ञा संन्यास कहलाता है । जैसे - इन्द्रिय विषय होने से शब्द अनित्य हैं इस प्रकार कहने पर दूसरा कहे कि ‘जाति इन्द्रिय विषय है और अनित्य नहीं । इसी प्रकार शब्द भी इन्द्रिय विषय है पर अनित्य न हो । इस प्रकार पक्ष के निषेध होने पर यदि कहे कि कौन कहता है कि शब्द अनित्य है, यह प्रतिज्ञा किये हुए अर्थ का छिपाना है । इसी को प्रतिज्ञासंन्यास कहते हैं (श्लो. वा. 4/न्या. 178/374/16 में इस पर चर्चा) ।