प्रोषधोपवास
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
पर्व के दिन में चारों प्रकार के आहार का त्याग करके धर्म ध्यान में दिन व्यतीत करना प्रौषधोपवास कहलाता है, उस दिन आरम्भ करने का त्याग होता है । एक दिन में भोजन की दो वेला मानी जाती है । पहले दिन एक वेला, दूसरे दिन दोनों वेलाऔर तीसरे दिन पुनः एक वेला, इस प्रकार चार वेला में भोजन का त्याग होने के कारण उपवास को चतुर्भक्त वेले को षष्टभक्त आदि कहते हैं । व्रत प्रतिमा में प्रोषधोपवास सातिचार होता है, और प्रोषधोपवास प्रतिमा में निरतिचार ।
- भेद व लक्षण
- उपवास सामान्य का लक्षण
- निश्चय
का.अ./मू./439 उवसमणो अक्खाणं उववासो वण्णिदोसमासेण । जम्हा भुंजंता वि य जिदिंदिया होंति उववासा ।439। = तीर्थंकर, गणधर आदि मुनिन्द्रों ने उपशमन को उपवास कहा है, इसलिए जितेन्द्रिय पुरुष भोजन करते हुए भी उपवासी हैं ।
अन.ध./7/12 स्वार्थादुपेत्य शुद्धात्मन्यक्षाणां वसनाल्लयात् । उपवासोसनस्वाद्यखाद्यपेयविवर्जनम् ।12। = उप् पूर्वक वस् धातु से उपवास बनता है अर्थात् उपसर्ग का अर्थ उपेत्य हट तथा वस् धातु का अर्थ निवास करना या लीन होना होता है । अतएव इन्द्रियों के अपने-अपने विषय से हटकर शुद्धात्म स्वरूप में लीन होने का नाम उपवास है ।12।
- व्यवहार
स.सि./7/21/361/3 शब्दादिग्रहणं प्रति निवृतौत्सुक्यानि पञ्चापीन्द्रियाण्युपेत्य तस्मिन् वसन्तीत्युपवासः । चतुर्विधाहारपरित्याग इत्यर्थः । = पाँचों इन्द्रियों के शब्दादि विषयों से हटकर उसमें निवास करना उपवास है । अर्थात् चतुर्विध आहार का त्याग करना उपवास है । (रा.वा./7/21/8/548/त.सा./7/10) ।
- निश्चय
- उपवास के भेद
वसु.श्रा./280 उत्तम मज्झ जहण्णं तिविहं पोसण विहाणमुद्दिट्ठं । = तीन प्रकार का प्रोषध विधान कहा गया है - उत्तम, मध्यम, जघन्य,
अन. ध./7/14 उपवासो वरो मध्यो जघन्यश्च त्रिधापि सः । कार्यो विरक्तैः । विरक्त पुरुषों को उत्तम, मध्यम व जघन्य में से कौन-सा भी उपवास प्रचुर पातकों की भी शीघ्र निर्जरा कर सकता है ।
- अक्षयनिधि आदि अनेक प्रकार के व्रत- देखें व्रत - 1.9
- प्रोषधोपवास का लक्षण
र.क.श्रा./मू./109 चतुराहारविसर्जनसुपवासः प्रोषधः सकृद्भुक्तिः । स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचरति ।109। = चार प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास है । एक बार भोजन करना प्रोषध है । जो धारणे-पारने के दिन प्रोषधसहित गृहारंभादि को छोड़कर उपवास करके आरंभ करता है, वह प्रोषधोपवास है ।
स.सि./7/21/361/3 प्रोषधशब्द: पर्व पर्यायवाची । ... प्रोषधे उपवासः प्रोषधोपवासः । = प्रोषधका अर्थ पर्व है । ... पर्व के दिन में जो उपवास किया जाता है उसे प्रोषधोपवास कहते हैं । (रा.वा./7/21/8/548/9); (सा.ध./5/34) ।
का.अ./मू./358-359 ण्हाण-विलेवण-भूसण-इत्थी-संसग्ग-गंधधूवादी । जो परिहरेदी णाणी वेरग्गाभूसणं किच्चा ।358। दोसु वि पव्वेसु सया उववासं एय-भत्त-णिव्वियडी । जो कुणदि एवमाई तस्स वयं पोसहं विदियं ।359। = जो श्रावक सदा दोनों पर्वों में स्नान, विलेपन, भूषण, स्त्री-संसर्ग, गंध, धूप दीपादि का त्याग करता है ; वैराग्यरूपी भूषण से भूषित होकर, उपवास या एक बार भोजन, वा निर्विकृति भोजन करता है उसके प्रोषधोपवास नाम का शिक्षाव्रत होता है ।358-359।
- प्रोषधोपवास सामान्य का स्वरूप
र.क.श्रा./मू./16-18 पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः ।16। पञ्चानां पापानामलं क्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम् । स्नानाञ्जननस्यानामुपवासे परिहति कुर्यात् ।17। धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान् । ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालुः ।18। =चतुर्दशी तथा अष्टमी के दिन सदाव्रत विधान की इच्छा से चार तरह के भोजन के त्याग करने को प्रोषधोपवास जानना चाहिए ।16। उपवास के दिन पाँचों पापों का - शृङ्गांर, आरम्भ, गन्ध, पुष्प, स्नान, अञ्जन तथा नश्य (सूँघने योग्य) वस्तुओं का त्याग करे ।17। (वसु. श्रा./293) उपवास के दिन आलस्यरहित हो कानों से अतिशय उत्कंठित होता हुआ धर्मरूपी अमृत को पीवै, तथा दूसरों को पिलावै अथवा ज्ञान-ध्यान में तत्पर होवे ।18। (ला.सं./6/195-197) ।
स.सि./7/21/361/4 स्वशरीरसंस्कारकारणस्नानगन्धमाल्याभरणादिविरहित: शुचावकाशे साधुनिवासे चैत्यालये स्वप्रोषधोपवासगृहे वा धर्मकथाश्रवणश्रावणचिन्तनविहितान्तःकरणः सन्नुपवसेन्निरारम्भ श्रावकः । = प्रोषधोपवासी श्रावक को अपने शरीर के संस्कार के कारण स्नान, गन्ध, माला और आभरणादिका त्याग करके किसी पवित्र स्थान में, चैत्यालय में, या अपने प्रोषधोपवास के लिए नियत किये गये घर में धर्मकथा के सुनने-सुनाने और चिन्तवन करने में मन को लगाकर उपवास करना चाहिए और सब प्रकार का आरम्भ छोड़ देना चाहिए । (रा.वा./7/21/26/549/35); (का.अ./358) ।
ला.सं./6/204 ब्रह्मचर्य च कर्तव्यं धारणादि दिनत्रयम् । परयोषिन्निषिद्धा प्रागिदं त्वात्मकलत्रके ।204। = धारणा के दिन से लेकर पारणा के दिन तक, तीन दिन उसे ब्रह्मचर्य पालना चाहिए । यह ध्यान में रखना चाहिए । व्रती श्रावक के लिए परस्त्री का निषेध तो पहले ही कर चुके हैं, यहाँ तो धर्मपत्नी के त्याग की बात बतायी जा रही है ।
व्रत विधान संग्रह/पृ. 22 पर उद्धृत प्रातःसामायिकं कुर्यात्ततः तात्कालिकीं क्रियाम् । धौताम्बरधरो धीमान् जिनध्यानपरायणम् ।1। महाभिषेकमद्भुत्यैर्जिनागारे व्रतान्वितैः । कर्तव्यं सह संघेन महापूजादिकोत्सवम् ।2। ततो स्वगृहमागत्य दानं दद्यात् मुनीशिने । निर्दोषं प्रासुकं शुद्धं मधुरं तृप्तिकारणम् ।3। प्रत्याख्यानोद्यतो भूत्वा ततो गत्वा जिनालयम् । त्रिः परीत्य ततः कार्यास्तद्विध्युक्तजिनालयम् ।4। = विवेकी, व्रती, श्रावक प्रात:काल ब्राह्म मुहूर्त्त में उठकर सामायिक करे, और बाद में शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्ध साफ वस्त्र धारण कर श्री जिनेन्द्र देव के ध्यान में तत्पर रहे ।1। श्री मन्दिरजी में जाकर सबको आश्चर्य करे, ऐसा महाभिषेक करे, फिर अपने संघ के साथ समारोह पूर्वक महापूजन करे ।2। व्रत विधान सं./पृ.27 पर उद्धृत । पश्चात् अपने घर आकर मुनियों को निर्दोष प्रासुक, शुद्ध, मधुर और तृप्ति करने वाला आहार देकर शेष बचे हुए आहार सामग्री को अपने कुटुम्ब के साथ सानन्द स्वयं आहार करे ।3। फिर मन्दिर जी में जाकर प्रदक्षिणा देवे और व्रत विधान में कहे गये मन्त्रों का जाप्य करे ।4।
- उत्तम, मध्यम व जघन्य प्रोषधोपवास का स्वरूप
पु.सि.उ./152-153 मुक्तसमस्तारम्भः प्रोषधदिनपूर्ववासरस्यार्द्धे । उपवासं गृह्णीयान्ममत्वमपहाय देहादौ ।151। श्रित्वा विविक्तवसतिं समस्तसावद्योगमानीय । सर्वेन्द्रियार्थाविरतः कायमनोवचनगुप्तिभिस्तिष्ठेत् ।153। धर्मध्यानाशक्तो वासरमतिबाह्यविहितसान्ध्यविधिम् । शुचिसंस्तरे त्रियामां गमयेत्स्वाध्यायजितनिद्र: ।154। प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा तात्कालिकं क्रियाकल्पम् । निर्वर्तयेद्यथोक्तं जिनपूजां प्राशुकैर्द्रव्यैः ।155। उक्तेन ततो विधिना नीत्वा दिवसं द्वितीयरात्रिं च । अतिवाहयेत्प्रत्नादर्द्धं च तृतीयदिवसस्य ।156। = उपवास से पूर्व दिन मध्याह्न को समस्त आरम्भ से मुक्त होकर, शरीरादिक में ममत्व को त्यागकर उपवास को अंगीकार करै ।152। पश्चात् समस्त सावद्य क्रिया का त्याग कर एकान्त स्थान को प्राप्त होवे । और सम्पूर्ण इन्द्रियविषयों से विरक्त हो त्रिगुप्ति में स्थित होवे । यदि कुछ चेष्ठा करनी हो तो प्रमाणानुकूल क्षेत्र में धर्मरुप ही करे ।153। कर ली गई हैं प्रातःकाल और सन्ध्याकालीन सामायिकादि क्रिया जिसमें ऐसे दिन को धर्मध्यान में आसक्ततापूर्वक बिता कर, पठन-पाठन से निद्रा को जीतता हुआ पवित्र संथारे पर रात्रि को बितावे ।154। तदुपरान्त प्रातः को उठकर तात्कालिक क्रियाओं से निवृत्त हो प्रासुक द्रव्यों से जिन भगवान् की पूजा करे ।155। इसके पश्चात् पूर्वोक्त विधि से उस दिन और रात्रि को प्राप्त हो के तीसरे दिन के आधे को भी अतिशय यत्नाचार पूर्वक व्यतीत करै ।156।
वसु.श्रा./281-292 सत्तमि-तेरसि दिवसम्मि अति हिजणभोयणवसाणम्मि । भोत्तूण भंजणिज्जं तत्थ वि काउण मुहसुद्धिं ।281। पक्खालिऊण वयणं कर- चरणे णियमिऊण तत्थेव । पच्छा जिणिंद-भवणं गंतूण जिणं णमंसित्ता।282। गुरुपुरओ किदियम्मं वंदणपुव्वं कमेण काऊण । गुरुसक्खियमुववासं गहिऊण चउव्विहं विहिणा ।283। वायण-कहाणुपेहण-सिक्खावण-चिंतणोवओगेहिं । णेऊण दिवससेसं अवराण्हिय वंदणं किच्चा ।284। रयणि समयम्हि ठिच्चा काउसग्गेण णिययसत्तीए । पडिलेहिऊण भूमिं अप्पपमाणेण संथारं।285। दाऊण किंचि रत्तिं सइऊण जिणालए णियघरे वा । अहवा सयलं रत्तिं काउसग्गेण णेऊण ।286। पच्चू से उट्ठित्ता वंदणविहिणा जिणं णमंसिंता । तह दव्व-भावपुज्जं णिय-सुय साहूण काऊण ।287। उत्तविहाणेण तहा दियहं रत्तिं पुणो वि गमिऊण । पारणदिवसम्मि पुणो पूयं काऊण पुव्वं व ।288। गंतूण णिययगेहं अतिहिविभागं च तत्थ काऊण । जो भुंजइ तस्स फुडं पोसहविहिं उत्तमं होइ ।289। जह उक्कस्सं तह मज्झिमं वि पोसहविहाणमुद्दिट्ठं । णवर विसेसो सलिलं छंडित्ता वज्जए सेसं ।290 । मुणिऊण गुरुवकज्जं सावज्जविवज्जियं णियारंभं । जइ कुणइ तं पि कुज्जा सेसं पुव्वं व णायव्वं ।291। आयंबिल णिव्वयडी एयट्ठाणं च एय भत्तं वा । जं कीरइ तं णेयं जहण्णयं पोसहविहाणं ।292। =- उत्तम - सप्तमी और त्रयोदशी के दिन अतिथिजन के भोजन के अन्त में स्वंय भोज्य वस्तु का भोजन कर और वहीं पर मुखशुद्धि को करके, मुँह को और हाथ-पाँव को धोकर वहाँ ही उपवास सम्बन्धी नियम को करके पश्चात् जिनेन्द्र भवन जाकर और जिन भगवान् को नमस्कार करके, गुरु के सामने वन्दना पूर्वक क्रम से कृतिकर्म करके, गुरु की साक्षी से विधिपूर्वक चारों प्रकार के आहार के त्यागरूप उपवास को ग्रहण कर शास्त्र - वाचन, धर्मकथा-श्रवण-श्रावण, अनुप्रेक्षा चिन्तन, पठन-पाठनादि के उपयोग द्वारा दिवस व्यतीत करके, तथा अपराह्णिक वन्दना करके, रात्रि के समय अपनी शक्ति के अनुसार कायोत्सर्ग से स्थित होकर, भूमि का प्रतिलेखन करके और अपने शरीर के प्रमाण बिस्तर लगाकर रात्रि में कुछ समय तक जिनालय में अथवा अपने घर में सोकर, अथवा सारी रात्रि कायोत्सर्ग से बिताकर प्रातःकाल उठकर वन्दना विधि से जिन भगवान् को नमस्कार कर तथा देव-शास्त्र और गुरु की द्रव्य वा भाव पूजन करके पूर्वोक्त विधान से उसी प्रकार सारा दिन और सारी रात्रि को भी बिताकर पारणा के दिन अर्थात् नवमी या पूर्णमासी को पुनः पूर्व के समान पूजन करके के पश्चात् अपने घर जाकर और वहाँ अतिथि को दान देकर जो भोजन करता है, उसे निश्चय से उत्तम प्रोषधोपवास होता है । 281-289।
- मध्यम - जिस प्रकार उत्कृष्ट प्रोषधोपवास विधान कहा गया है, उसी प्रकार से मध्यम भी जानना चाहिए । विशेषता यह है कि जल को छोड़कर शेष तीनों प्रकार के आहार का त्याग करना चाहिए ।290। जरूरी कार्य को समझकर सावद्य रहित यदि अपने घरू आरम्भ को करना चाहे, तो उसे भी कर सकता है, किन्तु शेष विधान पूर्व के समान है ।290-291।
- जघन्य- जो अष्टमी आदि पर्व के दिन आचाम्ल निर्विकृति, एक स्थान अथवा एकभक्त को करता है, उसे जघन्य प्रोषधोपवास समझना ।292। = (गुण.श्रा./170-174); (का.अ./मू./373-374); (सा.ध./5/34-39); (अन.ध./7/15); (चा.पा./टी./25/45/19) ।
- प्रोषधोपवास प्रतिमा का लक्षण
र.क.श्रा./140 पर्वदिनेषु चतुर्ष्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य । प्रोषधनियमविधायी प्रणिधिपरः प्रोषधानशनः ।140। =जो महीने महीने चारों ही पर्वों में (दो अष्टमी और चतुर्दशी के दिनों में) अपनी शक्ति को न छिपाकर शुभ ध्यान में तत्पर होता हुआ यदि अन्त में प्रोषधपूर्वक उपवास करता है वह चौथी प्रोषधोपवास प्रतिमा का धारी है ।140। (चा.सा./37/4) (द्र.सं./45/195)
- <a name="1.7" id="1.7"></a>एकभक्त का लक्षण
मू.आ./35 उदयत्थमणे काले णालीतियबज्जियम्हि मज्झम्हि । एकम्हि दुअ तिये वा मुहूत्तकालेय भत्तं तु ।35। = सूर्य के उदय और अस्तकाल की तीन घड़ी छोड़कर, वा मध्यान्ह काल में एक मुहूर्त, दो मुहूर्त, तीन मुहूर्त काल में एक बार भोजन करना, वह एकभक्त मूल गुण है ।35।
- चतुर्थमक्त आदि के लक्षण
ह.पु./34/125 विधीनामिह सर्वेषामेषा हि च प्रदर्शना । एकश्चतुर्थकाभिख्यो द्वौ षष्ठं त्रयोऽष्टमः । दशमाद्यास्तथा वेद्याः षण्मास्यन्तोपवासकाः ।125। = उपवास विधि में चतुर्थक शब्द से एक उपवास, षष्ठ शब्द से बेला, और अष्ट शब्द से तेला लिया गया है, तथा इसी प्रकार आगे दशम शब्द से चौड़ा आदि छह मास पर्यन्त उपवास समझने चाहिए । (भ.आ./भाषा/209/425) ।
मू.आ./भाषा./348 एक दिन में दो भोजन वेला कही हैं । (एक वेला धारण के दिन की, दो वेला उपवास के दिन की और एक वेला पारण के दिन की, इस प्रकार) चार भोजन वेला का त्याग चतुर्थभक्त अथवा उपवास कहलाता है । छह वेला के भोजन का त्याग षष्टभक्त अथवा वेला (2 उपवास) कहलाता है । इसी प्रकार आगे भी चार-पाँच आदि दिनों से लेकर छह उपवास पर्यन्त उपवासों के नाम जानने चाहिए ।
व्रतविधान सं./पृ. 26 मात्र एक बार परोसा हुआ भोजन सन्तोषपूर्वक खाना एकलठाना कहलाता है ।
- उपवास सामान्य का लक्षण
- प्रोषधोपवास व उपवास निर्देश
- प्रोषधोपवास के पाँच अतिचार
त.सू./7/34 अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ।34। = अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित भूमि में उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित वस्तु का आदान, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित संस्तर का उपक्रमण, अनादर और स्मृतिका अनुपस्थान ये प्रोषधोपवास व्रत के पाँच अतिचार हैं । (र,क,श्र,/110) ।
- प्रोषधोपवास व उपवास सामान्य में अन्तर
र.क.श्रा./109 चतुराहारविसर्जनमुपवासः प्रोषधः सकृद्भुक्तिः । स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्माचरति।109। = चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास है और एक बार भोजन करना प्रोषध है । तथा जो एकाशन और दूसरे दिन उपवास करके पारणा के दिन एकाशन करता है, वह प्रोषधोपवास कहा जाता है ।109।
- प्रोषधोपवास व प्रोषध प्रतिमाओं में अन्तर
चा.सा./37/4 प्रोषधोपवास: मासे चतुर्ष्वपि पर्व दिनेषु स्वकीया शक्तिमनिगुह्य प्रोषधनियमं मन्यमानो भवतीति व्रतिकस्य यदुक्तं शीलं प्रोषधोपवासस्तदस्य व्रतमिति । = प्रोषधोपवास प्रत्येक महीने के चारों पर्वों में अपनी शक्ति को न छिपाकर तथा प्रोषध के सब नियमों को मानकर करना चाहिए, व्रती श्रावक के जो प्रोषधोपवास शीलरूप से रहता था वही प्रोषधोपवास इस चौथी प्रतिमा वाले के व्रतरूप से रहता है ।
ला.सं./7/12-13 अस्त्यत्रापि समाधानं वेदितव्यं तदुक्तवत् । सातिचारं च तत्र स्यादत्रातिचारवर्जितम् ।12। द्वादशव्रतमध्येऽपि विद्यते प्रोषधं व्रतम् । तदेवात्र समाख्यानं विशेषस्तु विवक्षितः।13। = व्रत प्रतिमा में भी प्रोषधोपवास कहा है तथा यहाँ पर चौथी प्रतिमा में भी प्रोषधोपवास व्रत बतलाया है इसका समाधान वही है कि व्रत प्रतिमा में अतिचार सहित पालन किया जाता है । तथा यहाँ पर चौथी प्रतिमा में वही प्रोषधोपवास व्रत अतिचार-रहित पालन किया जाता है । तथाव्रत प्रतिमा वाला श्रावक कभी प्रोषधोपवास करता था तथा कभी कारणवश नहीं भी करता था परन्तु चतुर्थ प्रतिमा वाला नियम से प्रोषधोपवास करता है । यदि नहीं करता तो उसकी चतुर्थ प्रतिमा की हानि है । यही इन दोनों में अन्तर है ।13।
वसु.श्रा./टी./378/277/4 प्रोषधप्रतिमाधारी अष्टम्यां चतुर्दश्यां च प्रोषधोपवासमङ्गीकरोतीत्यर्थः । व्रते तु प्रोषधोपवासस्य नियमो नास्तीति । = प्रोषध प्रतिमाधारी अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास नियम से करता है और व्रत प्रतिमामें जो प्रोषधोपवास व्रत बतलाया है उसमें नियम नहीं है ।
- उपवास अपनी शक्ति के अनुसार करना चाहिए
ध. 13/5,4,26/56/12 पित्तप्पकोवेण उववास अक्खयेहि अद्धाहरेण उववासादो अहियपरिस्समेहि । ... । = जो पित्त के प्रकोपवश उपवास करने में असमर्थ हैं, जिन्हें आधा आहार की अपेक्षा उपवास करने में अधिक थकान होती है ... उन्हें यह अवमौदर्य तप करना चाहिए ।
चा.पा./टी./25/45/19 तदपि त्रिविधं ... प्रोषधोपवासं भवति यथा कर्तव्यम् । = वह प्रोषधोपवास भी उत्तम, मध्यम व जघन्य के भेद से तीन प्रकार का है । उनमें से कोई भी यथाशक्ति करना चाहिए ।
सा.ध./5/35 उपवासाक्षमैः कार्योऽनुपवासस्तदक्षमैः । आचाम्ल निर्विकृत्यादि, शक्त्या हि श्रेयसे तपः ।35। = उपवास करने में असमर्थ श्रावकों के द्वारा जल को छोड़कर चारों प्रकार के आहार का त्याग किया जाना चाहिए; और उपवास करने में असमर्थ श्रावकों के द्वारा आचाम्ल तथा निर्विकृति आदि रूप आहार किया जाना चाहिए, क्योंकि शक्ति के अनुसार किया गया तप कल्याण के लिए होता है ।35।
- उपवास साधु को भी करना चाहिए- देखें संयत - 3.2
- व्रत भंग करने का निषेध - देखें व्रत - 1.7
- उपवास में फलेच्छा का निषेध - देखें अनशन - 1.9
- उपवास साधु को भी करना चाहिए- देखें संयत - 3.2
- अधिक से अधिक उपवासों की सीमा
ध. 9/4,1,22/87-89/5 जो एक्कोववासं काऊणं पारिय दो उववासे करेदि, पुणरवि पारिय तिण्णि उववासे करेदि । एवमेगुत्तरवड्ढीए जाव जीविदंतं तिगुत्तिगुत्तो होदूण उववासे करें तो उग्गुग्गतवो णाम । ... एवं संते छम्मासेहिंतो वड्ढिया उववासा होंति । तदो णेदं घडदि त्ति । ण एस दोसो, घादाउआणं मुणीणं छम्मासोववास णियमब्भुवगमादो, णाप्पादाउआणं, तेसिमकाले मरणाभावो । अघादाउआ वि छम्मासोववासा चेव होंति, तदुवरि संकिलेसुप्पत्तोदो त्ति उत्ते होदु णाम एसो णियमो ससंकिलेसाणं सोवक्कमाउआण च, ण संकिलेसविरहिदणिरुवक्कम्माउआणं तवोबलेणुप्पण्णविरियंतराइ-यक्खओवसमाणं तव्वलेणेव मंदीकसायादावेदणीओदयाणामेस णियमो, तत्थ तव्विरोहादो । तवोबलेण एरिसी सत्ती महाणम्मुप्पज्जदि त्ति कधं णव्वदे । एदम्हादो चेव सुत्तादो । कुदो । छम्मासेहिंतो उवरि उववासाभावे उग्गुग्गतवाणुववत्तीदो । = जो एक उपवास को करके पारणा कर दो उपवास करता है, पश्चात् फिर पारणा कर तीन उपवास करता है । इस प्रकार एक अधिक वृद्धि के साथ जीवन पर्यन्त तीन गुप्तियों से रक्षित होकर उपवास करने वाला उग्रोग्रतपऋद्धि का धारक है । प्रश्न - ऐसा होने पर छह मास से अधिक उपवास हो जाते हैं । इस कारण यह घटित नहीं होता ? उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, घातायुष्क मुनियों के छह मासों के उपवास का नियम स्वीकार किया है, अघातायुष्क मुनियों के नहीं, क्योंकि, उनका अकाल में मरण नहीं होता । प्रश्न - अघातायुष्क भी छह मास तक उपवास करने वाले ही होते हैं, क्योंकि, इसके आगे संक्लेशभाव उत्पन्न हो जाता है ? उत्तर- इसके उत्तर में कहते हैं कि संक्लेश-सहित और सोपक्रमायुष्क मुनियों के लिए यह नियम भले ही हो, किन्तु संक्लेशभाव से रहित निरुपक्रमायुष्क और तप के बल से उत्पन्न हुए वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से संयुक्त तथा उसके बल से ही असाता वेदनीय के उदय को मन्द कर चुकने वाले साधुओं के लिए यह नियम नहीं है, क्योंकि उसमें इसका विरोध है । प्रश्न - तप के बल से ऐसी शक्ति किसी महाजन के उत्पन्न होती है, यह कैसे जाना जाता है ? उत्तर- इसी सूत्र से ही यह जाना जाता है, क्योंकि छह मास से ऊपर उपवास का अभाव मानने पर उग्रोग्र तप बन नहीं सकता ।
ध. 13/5,4,26/55/1 तत्थ चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसपक्ख-मास-उड्ड-अयण-संवच्छरेसु एसणपरिच्चाओ अणेसणं णाम तवो । = चौथे, छठे, आठवें, दसवें और बारहवें एषण का ग्रहण करना तथा एक पक्ष, एक मास, एक ऋतु, एक अयन अथवा एक वर्ष तक एषणा का त्याग करना अनेषण नाम का तप है ।
म.पु./20/28-29 का भावार्थ-आदिनाथ भगवान् ने छह महीने का अनशन लेकर समाधि धारण की । उसके पश्चात् छह माह पर्यन्त अन्तराय होता रहा । इस प्रकार ऋषभदेव ने 1 वर्ष का उत्कृष्ट तप किया ।
म.पु./36/106 गुरोरनुमतेऽधीपी दधदेकविहारिताम् । प्रतिमायोगमावर्षम् आतस्थे किल संवृतः।106। = गुरु की आज्ञा में रहकर शास्त्रों का अध्ययन करने में कुशल तथा एक विहारीपन धारण करने वाले जितेन्द्रय, बाहुबली ने एक वर्ष तक प्रतिमा योग धारण किया ।106। (एक वर्ष पश्चात् उपवास समाप्त होने पर भरत ने स्तुति की तब ही केवलज्ञान प्रगट हो गया । (म.पु./36/186) ।
- उपवास करने का कारण व प्रयोजन
पु.सि.उ./151 सामायिकसंस्कारं प्रतिदिनमारोपितं स्थिरीकर्तुम् । पक्षार्द्धयोर्द्वयोरपि कर्तव्योऽवश्यमुपवासः ।151। = प्रतिदिन अंगीकार किये हुए सामायिकरूप संस्कार को स्थिर करने के लिए पक्षों के अर्ध भाग-अष्टमी-चतुर्दशी के दिन उपवास अवश्य ही करना चाहिए । 151।
- उपवास का फल व महिमा
पु.सि.उ./157-160 इति यः षोडशायामान् गमयति परिमुक्तसकल-सावद्यः । तस्य तदानीं नियतं पूर्णमहिंसाव्रतं भवति ।157। भोगोपभोगहेतोः स्थावरहिंसा भवेत्किलामोषाम् । भोगोपभोगविरहाद्भवति न लेशोऽपि हिंसायाः ।158। वाग्गुप्तेर्नास्त्यनृतं न समस्तादानविरहतः स्तेयम् । नाब्रह्ममैथुनरुचः सङ्गों नाङ्गेऽप्यमूर्छस्य ।159। इत्थमशेषितहिंसः प्रयाति स महाव्रतित्वमुपचारात् । उदयति चरित्रमोहे लभते तु न संयमस्थानम् ।160। = जो जीव इस प्रकार सम्पूर्ण पाप क्रियाओं से परिमुक्त होकर 16 पहर गमाता है, उसके इतने समय तक निश्चयपूर्वक सम्पूर्ण अहिंसा व्रत होता है ।157। भोगोपभोग के हेतु से स्थावर जीवों की हिंसा होती है, किन्तु उपवासधारी पुरुष के भोगोपभोग के निमित्त से जरा भी हिंसा नहीं होती है ।158। क्योंकि वचनगुप्ति होने से झूठ वचन नहीं है, मैथुन, अदत्तादान और शरीर में ममत्व का अभाव होने से क्रमशः अब्रह्म, चोरी व परिग्रह का अभाव है ।159। उपवास में पूर्ण अहिंसा व्रत की पालना होने के अतिरिक्त अवशेष चारों व्रत भी स्वयमेव पलते हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण हिंसाओं से रहित व प्रोषधोपवास करने वाला पुरुष उपचार से महाव्रतीपने को प्राप्त होता है । अन्तर केवल इतना रह जाता है कि चारित्रमोह के उदयरूप होने के कारण संयम स्थान को प्राप्त नहीं करता है ।160।
व्रत विधान सं./पृ. 25 उद्धृत - अनेकपुण्यसंतानकारणं स्वर्निबन्धनम् । पापघ्नं च क्रमादेतत् व्रतं मुक्तिवशीकरम् ।1। यो विधत्ते व्रतं सारमेतत्सर्वसुखावहम् । प्राप्य षोडशमं नाकं स गच्छेत् क्रमशः शिवम् ।2। = व्रत अनेक पुण्य की सन्तान का कारण है, स्वर्ग का कारण है, संसार के समस्त पापों का नाश करने वाला है ।1। जो महानुभाव सर्व सुखोत्पादक श्रेष्ठ व्रत धारण करते हैं, वे सोलहवें स्वर्ग के सुखों को अनुभव कर अनुक्रम से अविनाशी मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं ।2।
- उपवास भी कथंचित् सावद्य है - देखें सावद्य ।7
- उपवास भी कथंचित् सावद्य है - देखें सावद्य ।7
- प्रोषधोपवास के पाँच अतिचार
- उपवास में उद्यापन का स्थान
- उपवास के पश्चात् उद्यापन करने का नियम
धर्म परीक्षा /20/22 उपवासों को विधिपूर्वक पूरा करने पर फल की वांछा करने वालों को उद्यापन भी अवश्य करना चाहिए ।22।
सा.ध./2/78 पञ्चम्यादिविधिं कृत्वा, शिवान्ताभ्युदयप्रदम् । उद्द्योतयेद्यथासंपन्निमित्ते प्रोत्सहेन्मनः ।78। = मोक्ष पर्यन्त इन्द्र, चक्रवर्ती आदि पदों को प्राप्त कराने पंचमी, पुष्पांजली, मुक्तावली तथा रत्नत्रय आदिक व्रत विधानों को करके आर्थिक शक्ति के अनुसार उद्यापन करना चाहिए, क्योंकि नैमित्तिक क्रियाओं के करने में मन अधिक उत्साह को प्राप्त होता है ।
व्रत विधान संग्रह/पृ.23 पर उद्धृत - सम्पूर्णे ह्यनुकर्तव्यं स्वशक्त्योद्यापनं बुधैः । सर्वथा येऽप्यशक्त्यादिव्रतोद्यापनसद्धिधौ । = व्रत की मर्यादा पूर्ण हो जाने पर स्व शक्ति के अनुसार उद्यापन करे, यदि उद्यापन की शक्ति न होवे तो व्रत का जो विधान है उससे दूने व्रत करे ।
- उद्यापन न हो तो दुगुने उपवास करे
धर्म परीक्षा/20/23 यदि किसी की विधिपूर्वक उद्यापन करने की सामर्थ्य न हो तो द्विगुण (दुगुने काल तक दुगुने उपवास) विधि करनी चाहिए क्योंकि यदि इस प्रकार नहीं किया जाये तो व्रतविधि कैसे पूर्ण हो । (व्रत विधान सं./पृ.23 पर उद्धृत) ।
- उद्यापन विधि
व्रत विधान संग्रह/पृ. 23 पर उद्धृत - कर्तन्यं जिनागारे महाभिषेकमद्भुतम् । संघैश्चतुर्विधैः साधं महापूजादिकोत्सवम् ।1। घण्टाचामर-चन्द्रोपकभृङ्गार्यार्तिकादयः । धर्मोपकरणान्येवं देयं भक्त्या स्वशक्तितः ।2। पुस्तकादिमहादानं भक्त्या देयं वृषाकरम् । महोत्सवं विधेयं सुवाद्यगीतादिनर्तनैः ।3। चतुर्विधाय संघायाहारदानादिकं मुदा । आमन्त्र्य परभक्त्या देयं सम्मानपूर्वकम् ।4। प्रभावना जिनेन्द्राणां शासनं चैत्यधामनि । कुर्वन्तु यशाशक्त्या स्तोकं चोद्यापनं मुदा ।5। = खूब ऊँचे-ऊँचे विशाल मन्दिर बनवाये और उनमें बड़े समारोह पूर्वक प्रतिष्ठा कराकर जिन प्रतिमा विराजमान करें । पश्चात् चतुःप्रकार संघ के साथ प्रभावना पूर्वक महाभिषेक कर महापूजा करे ।1। पश्चात् घण्टा, जालर, चमर, छत्र, सिंहासन, चन्दोवा, झारी, भृंगारो, आरती आदि अनेक प्रकार धर्मोपकरण शक्ति के अनुसार भक्तिपूर्वक देवे ।2। आचार्य आदि महापुरुषों को धर्मवृद्धि तथा ज्ञानवृद्धि हेतु शास्त्र प्रदान करें । और उत्तमोत्तम बाजे, गीत और नृत्य आदि के अत्यन्त आयोजन से मन्दिर में महान् उत्सव करें ।3। चतुर्विध संघ को विशिष्ट सम्मान के साथ भक्तिपूर्वक बुलाकर अत्यन्त प्रमोद से आहारादिक चतुःप्रकार दान देवे ।4। भगवान् जिनेन्द्र के शासन का माहात्म्य प्रगट कर खूब प्रभावना करें । इस प्रकार अपनी शक्ति के अनुसार उद्यापन व्रत विसर्जन करें ।5।
- उपवास के पश्चात् उद्यापन करने का नियम
- <a name="4" id="4"></a>उपवास के दिन श्रावक के कर्तव्य अकर्तव्य
- <a name="4.1" id="4.1"></a>निश्चय उपवास ही वास्तव में उपवास है
ध.13/5,4,26/55/3 ण च चउव्विहआहारपरिच्चागो चेव अणेसणं, रागादीहि सह तच्चागस्स अणेसणभावब्भुवगमादो । अत्र श्लोकः- अप्रवृत्तस्य दोषेभ्यस्सहवासो गुणैः सह । उपवासस्य विज्ञेयो न शरीरविशोषणम् ।6। = पर इसका यह अर्थ नहीं कि चारों प्रकार के आहार का त्याग ही अणेषण कहलाता है । क्योंकि रागादिक के त्याग के साथ ही उन चारों के त्याग को अनेषण स्वीकार किया है । इस विषय में एक श्लोक है - उपवास में प्रवृत्ति नहीं करने वाले जीव को अनेक दोष प्राप्त होते हैं और उपवास करने वाले को अनेक गुण, ऐसा यहाँ जानना चाहिए । शरीर के शोषण को उपवास नहीं कहते ।
देखें प्रोषधोपवास - 1.1 (इन्द्रिय विषयों से हटकर आत्मस्वरूप में लीन होने का नाम उपवास है ।)
- उपवास के दिन आरम्भ करे तो उपवास नहीं, लंघन होता है
का.आ./मू.378 उववासं कुव्वंतो आरंभं जो करेदि मोहादो । सो णिय देहं सोसदि ण झाडए कम्मलेसं पि ।378। = जो उपवास करते हुए मोहवश आरम्भ करता है वह अपने शरीर को सुखाता है उसके लेशमात्र भी कर्मों की निर्जरा नहीं होती ।378।
व्रत विधान संग्रह/पृ. 27 पर उद्धृत - कषायविषयारम्भत्यागो यत्र विधीयते । उपवास: स विज्ञेयो शेषं लङ्घनं विदुः । = कषाय, विषय और आरम्भ का जहाँ संकल्पपूर्वक त्याग किया जाता है, वहाँ उपवास जानना चाहिए । शेष अर्थात् भोजन का त्याग मात्र लंघन है ।
- उपवास के दिन स्नानादि करने का निषेध
इन्द्रनन्दि संहिता/14 पव्वदिणे ण वयेसु वि ण दंतकट्ठंण अचमंतप्पं । ण हाणंजणणस्साणं परिहारो तस्स सण्णेओ ।14। = पर्व और व्रत के दिनों में स्नान, अंजन, नस्य, आचमन और तर्पण का त्याग समझना चाहिए ।14।
देखें प्रोषधोपवास - 1.4 (उपवास के दिन स्नान, माला आदि का त्याग करना चाहिए ) ।
- उपवास के दिन श्रावक के कर्तव्य
देखें प्रोषधोपवास - 1.4,5 (गृहस्थ के सर्वारम्भ को छोड़कर मन्दिर अथवा निर्जन वसतिका में जाकर निरन्तर धर्मध्यान में सयम व्यतीत करना चाहिए ) ।
- सामायिकादि करे तो पूजा करना आवश्यक नहीं
ला.सं./6/202 यदा सा क्रियते पूजा न दोषोऽस्ति तदापि वै । न क्रियते सा तदाप्यत्र दोषो नास्तोह कश्चन ।202। = प्रोषधोपवास के दिन भगवान् अरहन्तदेव की पूजा करे तो भी कोई दोष नहीं है । यदि उस दिन वह पूजा न करे (अर्थात् सामायिकादि साम्यभावरूप क्रिया में बितावे) तो भी कोई दोष नहीं है ।202।
- रात्रि को मन्दिर में सोने का कोई नियम नहीं
वसु. श्रा./286 दाऊण किंचि रत्ति सइऊणं जिणालए णियघरे वा । अहवा सयलं रत्तिं काउस्सेण णेऊण ।286। =रात्रि में कुछ समय तक जिनालय अथवा अपने घर में सोकर, अथवा रात्रि कायोत्सर्ग में बिताकर अर्थात् बिल्कुल न सोकर ।286।
- <a name="4.1" id="4.1"></a>निश्चय उपवास ही वास्तव में उपवास है
पुराणकोष से
(1) चार शिक्षाव्रतों में दूसरा शिक्षाव्रत । इसमें मास के अष्टमी और चतुर्दशी इन चार पर्व के दिनों में निरारम्भ रहकर चारों प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है । इसमें इन्द्रियां बहिर्मुखता से हटकर अन्तर्मुख हो जाती है । हरिवंशपुराण 58.154, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.56 इसके पाँच अतिचार होते हैं― अनवेक्ष्यमलोत्सर्ग, अनवेक्ष्यादान, अनवेक्ष्यसंस्तरसंक्रम, अनैकाग्रय तथा व्रत के प्रति अनादर । एक प्रोषधोपवास को चतुर्थक कहते हैं । महापुराण 20.28-29, 36, 185, हरिवंशपुराण 34.125, 58.181
(2) श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में चौथी प्रतिभा । इसे प्रोषधव्रत भी कहते हैं । वीरवर्द्धमान चरित्र 18.60