रूप
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
रा. वा./1/27/1/88/4 अयं रूपशब्दोऽनेकार्थः क्वचिच्चाक्षुषे वर्तते यथा-रूपरसगन्धस्पर्शाः इति। क्वचित्स्वभावे वर्तते यथा अनन्तरूपमनन्तस्वभावम् इति। = रूप शब्द के अनेक अर्थ हैं कहीं पर चक्षु के द्वारा ग्राह्य शुक्लादि गुण भी हैं, जैसे−रूप, रस, गन्ध, स्पर्श। कहीं पर रूप का अर्थ स्वभाव भी है जैसे−अनन्तरूप अर्थात् अनन्त स्वभाव। (और भी−देखें मूर्त - 1)। [एककी संख्या को रूप कहते हैं।]
प्र. सा./ता. वृ./203/276/8 अन्तरङ्गशुद्धात्मानुभूतिरूपकं निर्ग्रन्थनिर्विकारं रूपमुच्यते। = अन्तरंग शुद्धात्मानुभूति की द्योतक निर्ग्रन्थ एवं निर्विकार साधुओं की वीतराग मुद्रा को रूप कहते हैं।
पुराणकोष से
चक्षु इन्द्रिय का विषय । यह पाँच प्रकार का होता है― काला, पीला, नीला, लाल, सफेद । महापुराण 75.623