वातवलय
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से == स.सि./3/1/204/3। टिप्पणी में अन्य प्रति से गृहीत पाठ - घनं च घनो मन्दो महान् आयतः इत्यर्थः। अम्बु च जलं उदकमित्यर्थः। वातशब्दोऽन्त्यदीपकः तत एवं सम्बन्धनीयः। घनो घनवातः। अम्बु अम्बुवातः। वातस्तनुवातः। इति महदापेक्षया तनुरिति सामर्थ्यगम्यः। अन्यः पाठः। सिद्धान्तपाठस्तु घनाम्बु च वातं चेति वातशब्दः सोपक्रियते। वातस्तनुवात इति वा। (मूलसूत्र में ‘घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः’ ऐसा पाठ है। उसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं) - घन, मन्द, महान्, आयत ये एकार्थवाची नाम हैं और अम्बु, जल व उदक ये एकार्थवाची हैं। वात शब्द अन्त्य दीपक होने के कारण घन व अम्बु दोनों के साथ जोड़ना चाहिए। यथा - घनो अर्थात् घनवात, अम्बु अर्थात् अम्बुवात और वात अर्थात् तनुवात। महत् या घन की अपेक्षा हलकी है, यह बात अर्थापत्ति से ही जान ली जाती है। यह अन्य पाठ की अपेक्षा कथन है। सिद्धान्तपाठ के अनुसार तो घन व अम्बुरूप भी है और वातरूप भी है ऐसा वात शब्द का अभिप्राय है। वात का अर्थ तनुवात अर्थात् हलकी वायु है। देखें लोक - 2.4 घनोदधि वात का वर्ण गोमूत्र के समान है, घनवात का मूंग के समान और तनुवात का वर्ण अव्यक्त है अर्थात् अनेक वर्ण वाला है।
- वातवलयों का लोक में अवस्थान - देखें लोक - 2।
पुराणकोष से
लोक को सब ओर से घेरकर स्थित वायु के वलय । ये तीन होते हैं― घनोदधि, घनवात और तनुवात । इनमें घनोदधि गोमूत्र के वर्ण समान, घनवात मूंगवर्ण के समान और तनुवात
परस्पर मिले हुए अनेक वर्णों वाला है । ये तीनों दण्डाकार लंबे, घनीभूत, ऊपर नीचे तथा चारों ओर लोक में स्थित हैं । अधोलोक में ये बीस-बीस हजार योजन और ऊर्ध्वलोक में कुछ कम एक योजन विस्तार वाले हैं । ऊर्ध्वलोक में जब ये दण्डाकार नहीं रह जाते तब क्रमश: सात, पाँच और चार योजन विस्तार वाले रह जाते हैं । मध्यलोक के पास इनका विस्तार पाँच, चार और तीन योजन रह जाता है और पांचवें स्वर्ग के अन्त में ये क्रमश: सात, पाँच और चार योजन विस्तृत हो जाते हे । मोक्षस्थल के समीप तो ये क्रमश: पांच, चार और तीन योजन विस्तृत रह जाते हैं । लोक के ऊपर घनोदधि वातवलय इससे आधा (एक कोस) और तनुवातवलय इससे कुछ कम पन्द्रह से पचहत्तर धनुष प्रमाण विस्तृत है । हरिवंशपुराण 4. 33-41