शुद्ध
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
1. शुद्ध का लक्षण
ध.13/5,5,50/286/11 वचनार्थगतदोषातीतत्वाच्छुद्ध: सिद्धान्त:। = वचन और अर्थगत दोषों से रहित होने के कारण सिद्धान्त का नाम शुद्ध है।
आ.प./6 शुद्धं केवलभावम् । = शुद्ध अर्थात् केवलभाव।
देखें तत्त्व - 1.1 तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य, स्वभाव, परमपरम, ध्येय शुद्ध और परम एकार्थवाची हैं।
स.सा./आ./6 अशेषद्रव्यान्तरभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमान: शुद्ध इत्यभिलप्यते। = समस्त अन्य द्रव्यों के भावों से भिन्न उपासित होता हुआ ‘शुद्ध’ कहलाता है।
स.सा./ता.वृ./102/162/19 निरुपाधिरूपमुपादानं शुद्धं, पीतत्वादिगुणानां सुवर्णवत् अनन्तज्ञानादिगुणानां सिद्धजीववत् । = निरुपाधि रूप उपादान शुद्ध कहलाता है जैसे-सुवर्ण के पीतत्व आदि गुण, की भाँति सिद्ध जीव के अनन्त ज्ञान आदि गुण।
प.प्र./टी./1/13 शुद्धो रागादिरहितो। = शुद्ध अर्थात् रागादि रहित।
द्र.सं./टी./28/80/1 की चूलिका-मिथ्यात्वरागादिसमस्तविभावरहितत्वेन शुद्ध इत्युच्यते। = मिथ्यात्व, राग आदि भावों से रहित होने के कारण आत्मा शुद्ध कहा जाता है।
पं.ध./उ./221 शुद्धं सामान्यमात्रत्वादशुद्ध तद्विशेषत:। = वस्तु सामान्य रूप से अनुभव में आती है तब वह शुद्ध है, और विशेष भेदों की अपेक्षा से अशुद्ध कहलाती है।
2. अन्य सम्बन्धित विषय
पुराणकोष से
सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.108, 212