सत्त्व
From जैनकोष
सत्त्व का सामान्य अर्थ अस्तित्व है, पर आगम में इस शब्द का प्रयोग संसारी जीवों में यथायोग्य कर्म प्रकृतियों के अस्तित्व के अर्थ में किया जाता है। एक बार बँधने के पश्चात् जब तक उदय में आ-आकर विवक्षित कर्म के निषेक पूर्वरूपेण झड़ नहीं जाते तब तक उस कर्म की सत्ता कही गयी है।
- सत्त्व निर्देश
- बन्ध उदय व सत्त्व में अन्तर। - देखें उदय - 2।
- सत्त्व प्ररूपणा सम्बन्धी नियम
- तीर्थंकर व आहारक के सत्त्व सम्बन्धी।
- अनन्तानुबन्धी के सत्त्व असत्त्व सम्बन्धी।
- छब्बीस प्रकृति सत्त्व का स्वामी मिथ्यादृष्टि होता है।
- 28 प्रकृति का सत्त्व प्रथमोपशम के प्रथम समय में होता है।
- प्रकृतियों आदि के सत्त्व की अपेक्षा प्रथम सम्यक्त्व की योग्यता। - देखें सम्यग्दर्शन - IV.2।
- गतिप्रकृति के सत्त्व से जीव के जन्म का सम्बन्ध नहीं, आयु के सत्त्व से है। - देखें आयु - 2।
- आयु प्रकृति सत्त्व युक्त जीव की विशेषताएँ। - देखें आयु - 6।
- सातिशय मिथ्यादृष्टि का सत्त्व सर्वत्र अन्त:कोटाकोटि से भी हीन है। - प्रकृतिबन्ध/7/4।
- अयोगी के शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग सत्त्व पाया जाता है। - देखें अपकर्षण - 4।
- प्रकृतियों के सत्त्व में निषेक रचना। - देखें उदय - 3।
- सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ
- प्रकृति सत्त्व व्युच्छित्ति की ओघ प्ररूपणा।
- सातिशय मिथ्यादृष्टियों में सर्व प्रकृतियां का सत्त्व चतुष्क।
- प्रकृति सत्त्व असत्त्व की आदेश प्ररूपणा।
- मोह प्रकृति सत्त्व की विभक्ति अविभक्ति।
- मूलोत्तर प्रकृति सत्त्व स्थानों की ओघ प्ररूपणा।
- मूल प्रकृति सत्त्व स्थान सामान्य प्ररूपणा।
- मोहप्रकृति सत्त्व स्थान सामान्य प्ररूपणा।
- मोह सत्त्व स्थान ओघ प्ररूपणा।
- मोह सत्त्व स्थान आदेश प्ररूपणा का स्वामित्व विशेष।
- मोह सत्त्व स्थान आदेश प्ररूपणा।
- नाम प्रकृति सत्त्व स्थान सामान्य प्ररूपणा।
- जीव पदों की अपेक्षा नामकर्म सत्त्व स्थान प्ररूपणा।
- नामकर्म सत्त्व स्थान ओघ प्ररूपणा।
- नामकर्म सत्त्व स्थान आदेश प्ररूपणा।
- नाम प्रकृति सत्त्व स्थान पर्याप्तापर्याप्त प्ररूपणा।
- मोह स्थिति सत्त्व की ओघ प्ररूपणा।
- मोह स्थिति सत्त्व की आदेश प्ररूपणा।