स्वच्छंद
From जैनकोष
- स्वच्छंद परिग्रह ग्रहण का निराकरण-देखें अपवाद - 4;
- स्वच्छन्द आहार ग्रहण का निराकरण-देखें आहार - II.2.7।
स्वच्छंद साधु--
1. स्वच्छन्द साधु का लक्षण
भ.आ./मू./1308-1312 सिद्धिपुरमुवल्लीणा वि केइ इंदियकसायचोरेहिं। पविलुत्तचरणभंडा उवहदमाणा णिव्ट्टंति।1308। तो ते सीलदरिद्दा दुक्खमणंतं सदा वि पावंति।...।1309। सो होदि साधुसत्थादु णिग्गदो जो भवे जधाछंदो। उस्सुत्तमणुवदिट्टं च जधिज्छाए विकप्पंतो।1310। जो होदि जधाछंदो हु तस्स धणिदं पि संजमितस्स। णत्थि दु चरणं चरणं खु होदि सम्यत्तसहचारी।1311। इंदियकसायगुरुगत्तणेण सुत्तं पमाणमकरंतो। परिमाणेदि जिणुत्ते अत्थे सच्छंददो चेव।1312। = मोक्ष नगर के समीप जाकर भी कितनेक मुनि इन्द्रिय और कषायरूपी चोरों से जिनका चारित्र रूपी भांडबल लूटा गया है तथा संयम का अभिमान जिनका नष्ट हुआ है ऐसे होकर मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं।1308। वे शील दरिद्री मुनि हमेशा तीव्र दु:ख को प्राप्त होते हैं।1309। जो मुनि साधु सार्थ को छोड़कर स्वतन्त्र हुआ है। जो स्वेच्छाचारी बनकर आगम विरुद्ध और पूर्वाचार्य अकथित आचारों की कल्पना करता है वह स्वच्छन्द नामक भ्रष्ट मुनि समझना चाहिए।1310। यथेष्ट प्रवृत्ति करने वाले उस भ्रष्ट मुनि ने यद्यपि घोर संयम किया होगा तथापि सम्यक्त्व न होने से उसका संयम चारित्र नहीं कहा जाता है।1311। इन्द्रिय और कषायों में आधीन होने से यह भ्रष्टमुनि जिनप्रणीत सिद्धान्त को प्रमाण नहीं मानता है और स्वच्छन्दाचारी बनकर सिद्धान्त का स्वरूप अन्यथा समझता है तथा अन्यथा विचार में लाता है।1312।
भ.आ./वि./1950/1723/1 स्वच्छन्दसंपर्कात्स्वयमपि स्वच्छन्दवृत्ति:। यथाच्छन्दो निरूप्यते-उत्सूत्रमनुपदिष्टं स्वेच्छाविकल्पितं यो निरूपयति सोऽभिधीयते यथाच्छन्द इति। तद्यथा वर्षे पतति जलधारणमसंयम:। क्षुरकर्तरिकादिभि: केशापनयनप्रशंसनम् आत्मविराधनान्यथा भवतीति। भूमिशय्यातृणपुञ्जे वसत: अवस्थितानामाबाधेति, उद्देशिकादिके भोजनेऽदोष: ग्रामं सकलं पर्यटतो महती जीवनिकायविराधनेति, गृहामत्रेषु भोजनमदोष इति कथनं, पाणिपात्रिकस्य परिशातनदोषो भवतीति निरूपणा, संप्रति यथोक्तकारी विद्यत इति च भाषणं एवमादिनिरूपणापरा: स्वच्छन्दा इत्युच्यन्ते। = स्वच्छन्द मुनि के संसर्ग से मुनि स्वच्छन्द बनते हैं। यथाच्छन्द मुनि का वर्णन करते हैं-जो मुनि आगम के विरुद्ध आगम में न कहा हुआ और स्वेच्छा कल्पित पदार्थों का स्वरूप कहते हैं उनको यथाच्छन्द मुनि कहते हैं। वर्षाकाल में जो पानी गिरता है उसको धारण करना वह असंयम है। उस्तरा और कैंची से केश निकालना ही योग्य है। केशलोंच करने से आत्म-विराधना होती है। सचित्त तृणपुंज पर बैठने से भी भूमि शय्या मूलगुण पाला जाता है। तृण पर बैठने से भी जीवों को बाधा नहीं पहुँचती। उद्देशादि दोष सहित भोजन करना दोषास्पद नहीं है। आहार के लिए सब ग्राम में घूमने से जीवों की विराधना होती है। घर में (वसतिका) में ही भोजन करना अच्छा है। हाथ में आहार लेकर भोजन करने से जीवों को बाधा पहुँचती है। ऐसा वे उत्सूत्र कहते हैं। इस काल में यथोक्त आचरण करने वाले मुनि कोई नहीं हैं। ऐसा कथन करना इत्यादि प्रकार से विरुद्ध भाषण करने वाले मुनियों को यथाछन्द अर्थात् स्वच्छन्दमुनि कहते हैं।
चा.सा./144/2 त्यक्तगुरुकुल एकाकित्वेन स्वच्छन्दविहारी जिनवचनदूषको मृगचारित्र: स्वच्छन्द इति वा। = जो अकेले ही स्वच्छन्द रीति से विहार करते हैं और जिनेन्द्र देव के वचनों को दूषित करने वाले हैं उनको मृगचारित्र अथवा स्वच्छन्द कहते हैं। (भा.पा./टी./14/137/22)।