अन्वत्वानुप्रेक्षा
From जैनकोष
बारह अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) में एक भावना । इसमें यह भावना की जाती है― न मैं देह हूँ, न मन हूँ और न इन तीनों का कारण हूँ । मैं शरीर से पृथक् हूँ, बाह्य वस्तुओं से परे हूं, निश्चय से मैं अपने शरीर, कर्म ओर कर्मजनित सुख-दु:ख आदि से भिन्न हूँ । कर्म विपाक से ही माता, पिता, बंधु आदि से मेरे संबंध है । मैं पौद्गलिक कर्मजनित संकल्प-विकल्पों से मुक्त तथा द्रव्य और भाव, मन और वचन से सर्वथा भिन्न हूँ । राग, द्वेष आदि भाव मेरे विभाव है । महापुराण 38.183 पद्मपुराण 14.237-239, पांडवपुराण 25.93-95, वीरवर्द्धमान चरित्र 11.2-3, 44-53 देखें अनुप्रेक्षा