आर्यखंड
From जैनकोष
१. आर्यखण्ड निर्देश तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४,२६६-२६७ गंगासिंधुगईहिं वेवड्ढणगेण भरहखेत्तम्मि। छक्खंडं संजादं...।।२६६।। उत्तरदक्खिणभरहे खंडाणि तिण्णि होंति पत्तेक्क। दक्खिण तियखंडेसु मज्झिमखंडस्म बहुमज्झे। = गंगा व सिन्धु नदी और विजयार्ध पर्वतसे भरत क्षेत्रके छः खण्ड हो गये हैं ।।२६६।। उत्तर और दक्षिण भरत क्षेत्रमें-से प्रकत्येकके तीन तीन खण्ड हैं। इनमें-से दक्षिण भरतके तीन खण्डोंमें मध्यका आर्य खण्ड है। २. आर्य खण्डमें काल परिवर्तन तथा जीवों व गुणस्थानों सम्बन्धी विशेषताएँ तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/३१३-३१४,३१६ भरहक्खेत्तम्मि इमे अज्जखंडम्मि कालपरिभागा। अवसप्पिणि उस्सप्पिणिपज्जाया दोण्णि होंति पुढ ।।३१३।। णरतिरियाणं आऊ उच्छेह विभूदिपहुदियं सव्वं। अवसप्पिणिए हायदि उस्सप्पिणियास बड्ढेदि ।।३१४।। दोण्णि वि मिलिदे कप्पं छेब्भेदा होंति तत्थ एक्केक्कं। सुसमसुसम च सुसमं तइज्जयं सुसमदुस्समयं ।।३१६।। दुस्समसुसमं दुस्सममदिदुस्समयं च तेसु पढमम्मि। = भरत क्षेत्रके आर्य खण्डमें ये कालके विभाग हैं। यहाँ पृथक् पृथक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी रूप दोनों ही कालोंकी पर्याये होती हैं ।।३१३।। अवसर्पिणी काल में मनुष्य एवं तिर्यचोंकी आयु शरीरकी ऊँचाई और विभूति इत्यादिक सब ही घटते तथा उत्सर्पिणी कालमें कढ़ते रहते हैं ।।३१४।। दोनोंको मिलाने पर एक कल्प काल होता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीमें-से प्रत्येकके छह भेद हैं-सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुष्षमसुषमा, दुष्षमा और अतिदुष्षमा। तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/२९३४-२९३६,२९३८ पज्जत्ताणिव्वत्तियपज्जत्ता लद्धियायपज्जत्ता। सत्तरिजुत्तसदज्जाखंडे पुणिदरलद्धि णरा ।।३९३४।। पणपण अज्जाखडे भरहेरावदम्मि मिच्छागुणट्ठाणं। अवरे वरम्मि चोद्दसपेंरत कआइ दीसंति ।।२९३५।। पंच विदेहे सट्ठिसमण्णिदसद अज्जखंडए अवरे। छग्गुणट्ठाणे तत्तो चोद्दसपेरंत दीसंति ।।२९३६।। विज्जाहरसेढीए तिगुणट्ठाणाणि सव्वकालम्मि। पणगुणठाणा दीसइ छंडिदविज्जाण चोद्दसट्ठाणं ।।२९३८।। तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ५/३००-३०२ पणपणअज्जखंडे भरहेगवदखिदिम्मि मिच्छत्तं। अवरे वरम्मि पण गुणठाणाणि कयाइ दीसंति ।।३००।। पंचविदेहेसट्ठिण्णिदसअज्जवखंडए तत्तो। विज्जाहरसेढीए बाहिरभागे सयंपहगिरीदो ।।३०१।। सासणमिस्सविहीणा तिगुणट्ठाणाणि थोवकालम्मि। अवरेवरम्मि पण गुणठाणाइ कयाइ दीसंति ।।३०२।। = १. मनुष्यकी अपेक्षा पर्याप्त, निवृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्तके भेदसे मनुष्य तीन प्रकारके होते हैं। एक सौ सत्तर आर्य खण्डोमें पर्याप्त, निवृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त तीनों प्रकारके ही मनुष्य होते हैं ।।२९३४।। भरत व ऐरावत क्षेत्रके भीतर पाँच-पाँच आर्य खण्डोमें जघन्य रूपसे मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे कदाचित् चौदह गुणस्थान पाये जाते हैं ।।२९३५।। पांच विदेह क्षेत्रोंके भीतर एकसौ साठ आर्य खण्डोंमें जघन्य रूपसे छः गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे चौदह गुणस्थान तक पाये जाते हैं ।।२९३६।। विद्याधर श्रेणियोंमें सदा तीन गुणस्थान (मिथ्यात्व, असंयत और देशसंयत) और उत्कृष्ट रूपसे पांच गुणस्थान होते हैं। विद्याओंको छोड़ देने पर वहाँ चौदह भी गुणस्थान होते हैं ।।२९३८।। २. तिर्यन्चोंकी अपेक्षा - भरत और ऐरावत क्षेत्रके भीतर पाँच पाँच आर्य खण्डोंमें जघन्य रूपसे एक मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे कदाचित् पाँच गुणस्थान भी देखे जाते हैं ।।३००।। पाँच विदेहोंके भीतर एकसौ साठ आर्य खण्डोमें विद्याधर श्रेणियोमें और स्वयंप्रभ पर्वतके बाह्य भागमें सासादन एवं मिश्र गुणस्थानको छोड़कर तीन गुणस्थान जघन्य रूपसे स्तोक कालके लिए होते हैं। उत्कृष्ट रूपसे पाँच गुणस्थान भी कदाचित् देखे जाते हैं ।।३०१-३०२।। • आर्यखण्डमें सुषमा दुषमा आदिकाल- दे. काल ४। • आर्यखण्डमें नगर पर्व व नगरियाँ - दे. मनुष्य ४।