अपरिस्राविता
From जैनकोष
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 486,495 लोहेण पदीमुदयं व जस्स आलोचिदा अदीचारा। ण परिस्सवंति अण्णत्तो सो अपरिस्सवो होदि ॥486॥ इच्चेवमादिदोसा ण होंति गुरुणो रहस्सधारिस्स। पुट्ठेव अपुट्ठे वा अपरिस्साइस्स धारिस्स ॥495॥
= जैसे तपा हुआ लोहेका गोला चारों तरफसे पानीका शोषण कर लेता है, वैसे ही जो आचार्य क्षपकके दोषोंको सुनकर अपने अंदर ही शोषण कर पूछनेपर अथवा न पूछनेपर भी जो उन्हें अन्यपर प्रगट न करे, वह अपरिस्रावी गुणका धारक है।