आदि
From जैनकोष
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/११/१/५२ अयमादिशब्दोऽनेकार्थवृत्तिः। क्वचित्प्राथम्ये वर्तते `अकारादयो वर्णाः, ऋषभादयस्तीर्थंकराः' इति। क्वचित्प्रकारे, भुजङ्गादयः परिहर्तव्याः इति। क्वचिद्व्यवस्थायाम् `सर्वादि सर्वनाम' इति। क्वचित्सामीप्ये `नद्यादीनि क्षेत्राणि' इति। क्वचिदवयवे `टिदादिः' इति, अथवा `ब्राह्मणादिचत्वारो वर्णाः' इति।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या १/३०/२/९०)।
= `आदि' शब्दका अनेक अर्थोंमें प्रयोग होता है। १. कहीं तो `प्रथम' के अर्थमें प्रयुक्त होता है जैसे अकारादि वर्ण या ऋषभादि तीर्थँकर। २. कहीं `प्रकार'के अर्थमें प्रयुक्त होता है जैसे भुजङ्गादि त्याज्य हैं। कहीं व्यवस्थाके अर्थमें प्रयुक्त होता है जैसे-`सर्वादि सर्वनाम' इस व्याकरण सूत्रसे विदित है। ४. कहीं समिप्यके अर्थमें आता है जैसे-नदी आदिक क्षेत्र। ५. कहीं अवयवके अर्थमें आता है जैसे `टिदादि' यह व्याकरण सूत्र (अथवा ब्राह्मणादि चार वर्ण) ( राजवार्तिक अध्याय संख्या १/३०/२/९०)। ६. मुख अर्थात् First term; Head of quadrant or first dogit in numer cal series-
(विशेष देखे गणित II/५/३)
- सादि अनादि विषयक - देखे अनादि ।