अहंकार
From जैनकोष
तत्त्वानुशासन श्लोक संख्या १५ ये कर्मकृताभावा परमार्थनयेन चात्मनोभिन्नाः। तत्रात्माभिनिवेशोऽहंकारोऽहं यथा नृपतिः ।।१५।।
= कर्मोके द्वारा निर्मित जो पर्यायें हैं और निश्चयनयसे आत्मासे भिन्न हैं, उसमें आत्माका जो मिथ्या आरोप है, उसका नाम अहंकार है जैसे मैं राजा हूँ।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा संख्या ९४/१४ मनुष्यादिपर्यायरूपोऽहमित्यहंकारो भण्यते।
= `मनुष्यादि पर्यायरूप ही मैं हूँ' ऐसा कहना अहंकार है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या ४१/१६९/१ कर्मजनितदेहपुत्रकलत्रादौ ममेदमिति ममकारस्त त्रैवाभेदेन गौरस्थूलादिदेहोऽहं राजाऽहमित्यहंकारलक्षणमिति।
= कर्मोंसे उत्पन्न जो देह, पुत्र, स्त्री आदिमें `यह मेरा शरीर है, यह मेरा पुत्र है', इस प्रकारकी जो बुद्धि है वह ममकार है, और उन शरीरादीमें अपनी आत्मासे अभेद मानकर जो `मैं गौर वर्णका हूँ, मोटे शरीर वाला हूँ, राजा हूँ' इस प्रकार मानना सो अहंकारका लक्षण है।