मूर्च्छा
From जैनकोष
सर्वार्थसिद्धि/7/17/10 मूर्छेत्युच्यते । का मूर्च्छा ? बाह्यानां गोमहिषमणिमुक्ताफलादीनां चेतनाचेतनानामाभ्यंतराणां च रागादीनामुपधीनां संरक्षणार्जनसंस्कारादिलक्षणाव्यावृत्तिर्मूर्छा । ननु च लोके वातादिप्रकोपविशेषस्य मूर्च्छेति प्रसिद्धिरस्ति तद्ग्रहणं कस्मान्न भवति । सत्यमेवमेतत् । मूर्छिरयं मोहसामान्ये वर्तते । ‘सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्वतिष्ठंते’ इत्युक्ते विशेषे व्यवस्थितः परिगृह्यते, परिग्रह-प्रकरणात् । = प्रश्न− मूर्च्छा का स्वरूप क्या है ? उत्तर− गाय, भैंस, मणि और मोती आदि चेतन-अचेतन, बाह्य उपधि का तथा रागादिरूप आभ्यंतर उपधि का संरक्षण, अर्जन और संस्कार आदि रूप ही व्यापार मूर्च्छा है । प्रश्न− लोक में वातादि प्रकोप विशेष का नाम मूर्च्छा है, ऐसी प्रसिद्धि है, इसलिए यहाँ इस मूर्च्छा का ग्रहण क्यों नहीं किया जाता ? उत्तर− यह कहना सत्य है, तथापि ‘मूर्च्छ्’ धातु का सामान्य अर्थ मोह है और सामान्य शब्द तद्गत विशेषों में ही रहते हैं, ऐसा मान लेने पर यहाँ मूर्च्छा का विशेष अर्थ ही लिया गया है, क्योंकि यहाँ परिग्रह का प्रकरण है । ( राजवार्तिक/7/17/1-2/544/34 ); ( चारित्रसार/96/5 ) । (विशेष देखें अभिलाषा तथा राग ) ।