ग्रन्थ:दर्शनपाहुड़ गाथा 5
From जैनकोष
सम्मत्तविरहिया णं सुठ्ठू वि उग्गं तवं चरंता णं ।
ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं ॥५॥
सम्यक्त्वविरहिता णं सुष्ठु अपि उग्रं तप: चरन्तो णं ।
न लभन्ते बोधिलाभं अपि वर्षसहस्रकोटिभि: ॥५॥
अब कहते हैं कि जो तप भी करते हैं और सम्यक्त्वरहित होते हैं उन्हें स्वरूप का लाभ नहीं होता -
यद्यपि करें वे उग्रतप शत-सहस-कोटि वर्ष तक ।
पर रत्नत्रय पावें नहीं सम्यक्त्व विरहित साधु सब ॥५ ॥
भावार्थ - सम्यक्त्व के बिना हजार कोटि वर्ष तप करने पर भी मोक्षमार्ग की प्राप्ति नहीं होती । यहाँ हजार कोटि कहने का तात्पर्य उतने ही वर्ष नहीं समझना, किन्तु काल का बहुतपना बतलाया है । तप मनुष्य पर्याय में ही होता है, और मनुष्यकाल भी थोड़ा है, इसलिए तप के तात्पर्य से यह वर्ष भी बहुत कम कहे हैं ॥५॥