ग्रन्थ:दर्शनपाहुड़ गाथा 6
From जैनकोष
सम्मत्तणाणदंसणबलवीरियवड्ढमाण जे सव्वे ।
कलिकलुसपावरहिया वरणाणी होंति अइरेण ॥६॥
सम्यक्त्वज्ञानदर्शनबलवीर्यवर्द्धमाना: ये सर्वे ।
कलिकलुषपापरहिता: वरज्ञानिन: भवन्ति अचिरेण ॥६॥
ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्व के बिना चारित्र, तप को निष्फल कहा है । अब सम्यक्त्व सहित सभी प्रवृत्ति सफल है - ऐसा कहते हैं -
सम्यक्त्व दर्शन ज्ञान बल अर वीर्य से वर्द्धमान जो ।
वे शीघ्र ही सर्वज्ञ हों, कलिकलुसकल्मस रहित जो ॥६॥
भावार्थ - इस पंचमकाल में जड़-वक्र जीवों के निमित्त से यथार्थ मार्ग अपभ्रंश हुआ है । उसकी वासना से जो जीव रहित हुए वे यथार्थ जिनमार्ग के श्रद्धानरूप सम्यक्त्वसहित ज्ञान-दर्शन के अपने पराक्रम-बल को न छिपाकर तथा अपने वीर्य अर्थात् शक्ति से वर्द्धमान होते हुए प्रवर्तते हैं, वे अल्पकाल में ही केवलज्ञानी होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥६॥